Sunday, 23 December 2018

कुमाऊं की दो मशरूम गल्र्स, पढ़ाई से लेकर प्लांट शुरू करने तक का सफर


गणेश पांडे, हल्द्वानी : देहरादून की दिव्या रावत के बाद हल्द्वानी की दो युवतियों ने मशरूम उत्पादन की दिशा में कदम बढ़ाया है। एमएससी बायोटेक की पढ़ाई करने वाली दोनों युवतियों ने रोजगार की आश में महानगरों का रुख करने वाले युवाओं को आईना दिखाने का काम किया है। खास बात ये है कि दोनों किसान की बेटियां हैं। हल्द्वानी आनंदपुर की दीपिका बिष्ट (23) और मदनपुर गौलापार की श्वेता जोशी (23) ने स्वरोजगार की दिशा में अहम कदम बढ़ाया है। दोनों ने हल्द्वानी से 12 किमी दूर मदनपुर गांव में मशरूम प्लांट शुरू किया है। मशरूम उत्पादन की शुरुआत बटन प्रजाति से हुई है। स्कूल में पढ़ाने के बाद दोनों प्लांट में मशरूम उत्पादन का काम देखती है। छुट्टी का दिन प्लांट में बीतता है। मशरूम की पहली खेप बाजार में आने के लिए तैयार है।




देहरादून से लिया प्रशिक्षण
 एमएससी की पढ़ाई करने के बाद दीपिका व श्वेता ने टैगजीन ट्रेनिंग एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट देहरादून से एक माह का मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण लिया। इस दौरान मशरूम की उपयोगिता, उत्पादन, देखरेख आदि की बारीकी सीखी।
 

परिवार ने दिया साथ, बढ़ाया हौसला 
श्वेता का भाई सीए की पढ़ाई कर रहे और बहन बीकॉम की शिक्षा ले रही है। दीपिका के भाई एमकॉम कर रहे हैं। श्वेता के पिता भुवन चंद्र जोशी, दीपिका के पिता हरीश सिंह बिष्ट व परिवार के अन्य सदस्यों ने दोनों का हौसला बढ़ाया। दून अल्पाइन कॉलेज के डॉ. कार्तिक उनियाल, उत्तम कुमार ने भी प्रेरित किया।
 

छह साल पहले शुरू हुई दोस्ती 
हल्द्वानी एमबीपीजी कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई करने के दौरान छह साल पहले दोनों की दोस्ती हुई। बाद में देहरादून अल्पाइन इंस्टीट्यूट से एमएससी बायोटेक किया।
 

खुद के पैसे से शुरू किया प्लांट
दीपिका ग्रीनवुड ग्लोबल स्कूल व श्वेता वेंडी सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाती हैं। स्कूल से मिलने वाली राशि से दोनों ने प्लांट शुरू किया। 20 फिट गुणा 17 फिट का प्लांट के लिए 50 हजार रुपये निवेश किया। लोहे के एंगल में बांस, सुतली, पॉलीथिन आदि से प्लांट का आकार दिया।
 

खरीदारी को घर पर आ रहे लोग 
मशरूम की विधिवत बिक्री शुरू नहीं हुई है, लेकिन खरीदारी के लिए रिश्तेदार व परिचित प्लांट पर आने लगे हैं। प्रचार के लिए दोनों ने सोशल मीडिया को माध्यम बनाया है। होटल, रेस्टोरेंट संचालकों से भी संपर्क कर रही हैं।
 

इस तहत व्यवस्थित किया तापमान 
प्लांट के ऊपर प्लास्टिक की पन्नी डाली है। पन्नी ठंडी रहे इसके लिए बाहर से पुराने बोरे लगाए हैं। बोरों पर पानी का छिड़का जाता है। इससे प्लास्टिक ठंडी रहती है व भीतर का तापमान बाहर की अपेक्षा कम रहता है।

Monday, 15 October 2018

पहल: सोशल मीडिया से बचा रहे लोक की थात


गणेश पांडे:: बदलते समय की चकाचौंध का असर उत्तराखंड की लोक परंपराओं पर भी पड़ा है। शादी-विवाह जैसे शुभ अवसरों पर शगुन आंखर (मांगलिक गीत) गाने की परंपरा धीरे-धीरे गुजरे जमाने की बात होते जा रही है। मांगलिक अवसरों पर बुजुर्ग गीदारों की कर्णप्रिय धुन अब कम सुनाई पड़ती है। शगुन आंखर गायन की अद्भुत परंपरा फिर से जीवंत हो, इसके लिए कुछ लोगों ने नायाब पहल की है।
मांगलिक गीतों को विवाह, नामकरण, यज्ञोपवीत जैसे अवसर पर गाया जाता है। ङ्क्षहदू शास्त्रों में भी मांगलिक गीत गाने का उल्लेख मिलता है। मगर बदलते समय के साथ यह परंपरा धीरे धीरे पीछे छूटती जा रही है। घरों में होने वाले विवाह आयोजन होटल, बारात घर, बैंक्वेट हॉल तक पहुंच गए हैं। ऐसे में गीदारों को खोलना मुश्किल हो जाता है। संस्कृति प्रेमियों ने मांगलिक गीतों ऑडियो तैयार कर यूट्यूब पर अपलोड की है। जिन्हें शुभअवसरों पर मोबाइल फोन पर कहीं भी बजाया जा सकेगा।


:::::::::::
इन गीतों को किया संग्रहित
पुण्य वाचन गीत, हल्दी गीत, देव निमंत्रण, गणेश पूजन, मातृ पूजा, कलश पूजा, पितृ निमंत्रण, नवग्रह पूजा, ज्योति पूजा, संध्या गीत, निमंत्रण गीत, सुवाल पथाई गीत, भात न्यूतने के गीत, बारात आने के गीत, धूली अघ्र्य गीत, कन्यादान तैयारी गीत, शय्या दान गीत, विदाई गीत, नामकरण गीत, बन्ना-बन्नी गीत, मंगल गीत।
::::::::::::::
शगुन आंखर के 56 गीतों का संकलन
मांगलिक गीतों के गुलदस्ते में 20 अलग-अलग प्रकार के 56 गीतों को संकलित किया गया है। जिन्हें मौके के अनुसार बजाया जा सकता है। संकलन कर्ता लता कुंजवाल कहती हैं इससे नई पीढ़ी अपनी प्राचीन परंपरा से रूबरू हो सकेगी।
:::::::::::
इनका रहा योगदान
शिखर सांस्कृतिक विकास समिति अल्मोड़ा की लता कुंजवाल के शोध व संकलन से शगुन आंखर की ऑडियो तैयार हुई। लता कुंजवाल, मीनू जोशी, शमिष्ठा बिष्ट की आवाज, हेमंत बिष्ट के पाश्र्व स्वर, अमर सब्बरवाल, आनंद बिष्ट के संगीत, मिक्सिंग इंजीनियर नितेश बिष्ट, जुगल किशोर पेटशाली के परामर्श से गीत तैयार हुए।
::::::::::

आज की पीढ़ी शगुन आंखरों को भूलती जा रही है। बच्चों को तो मालूम भी नहीं कि ऐसी भी कोई परंपरा रही है। ऐसे में शगुन आंखर को सोशल प्लेटफार्म पर लाना सराहनीय प्रयास है।
- जुगल किशोर पेटशाली, लेखक एवं संस्कृति कर्मी

Wednesday, 10 October 2018

दूसरों के घर चूल्हा-चौंका करना पसंद नहीं था, इसलिए चलाने लगी ई-रिक्शा


उत्तराखंड की पहली महिला ई-रिक्शा चालक के तौर पर पहचान बनाने वाली रानी मैसी आधी आबादी के लिए मिसाल बन चुकी हैं। रानी कहती हैं ढ़ाई साल पहले अगर मैंने साहस नहीं दिखाया होता तो आज भी वह गुमनाम होती। परिवार पहले की तरह मुश्किलों में होगा। बेटी की पढ़ाई पूरी हो पाती या नहीं, यह कहते हुए उनका गला भर आता है..।
गांधी नगर वार्ड एक निवासी 45 वर्षीय रानी मैसी के पति बबलू मैसी माली का काम करते थे। तीन साल पहले एक दिन गिरने से उनके सिर पर चोट लग गई। दिमागी चोट के कारण अक्सर उन्हें चक्कर आ जाता। शहर के निजी अस्पताल से इलाज चला। महीने की हजार-बारह सौ की दवा का खर्च उठाना परिवार पर भारी पड़ रहा था। इकलौती बेटी मोहिनी ने कुछ माह पहले ही मुरादाबाद के नर्सिंग कॉलेज में दाखिला लिया था। परिवार के एकमात्र कमाऊ व्यक्ति के बिस्तर पकडऩे से परिवार आर्थिक संकट से घिर गया।
आज रानी ई-रिक्शा की एजेंसी व सर्विस सेंटर चला रही हैं। देवर, एक कारीगर व एक युवती दुकान पर रहते हैं। जीएनएम की पढ़ाई पूरी कर चुकी मोहिनी ट्रेनिंग कर रही है। रानी के लिए यह मुकाम हासिल करना आसान नहीं था।

 

:::::::::
पहले ताने देते थे अब देते सम्मान
आठवीं तक पढ़ी रानी के सामने आसान विकल्प था कि दूसरों के घरों का चूल्हा-बर्तन करे। आसपास के लोग भी यही सुझाते थे। ई-रिक्शा चलाने की ठानी तो महिलाएं ताना मारती अब ये आदमियों वाला करेगी। हालांकि अब यही लोग रानी को सम्मान देते हैं।
:::::::::::
महिलाओं को बना रही आत्मनिर्भर
रानी मैसी अब तक तीन महिलाओं को ई-रिक्शा चला सीखा चुकी हैं। हल्द्वानी के अलावा बाजपुर, किच्छा से महिलाएं प्रशिक्षण लेने पहुंच रही हैं। रानी कहती हैं ई-रिक्शा ही नहीं, स्वाभिमान जगाने वाले कई दूसरे कामों से भी महिलाएं खुद के पैरों पर खड़ी हो सकती हैं। ठान लें तो कोई काम मुश्किल नहीं।
:::::::::::
बढ़ गया आत्मविश्वास
रानी को प्रेरित करने में देवर एस चरण 'बंटीÓ का अहम योगदान रहा। रानी समूह से जुड़ी। बैंक से ई-रिक्शा फाइनेंस कराया। कभी साइकिल तक को हाथ न लगाने वाली रानी ने देवर से ई-रिक्शा चलाना सीखा। आत्मविश्वास बढ़ा तो बाद में स्कूटी चलाना सीखी। गाजियाबाद, मुरादाबाद स्कूटी से आती-जाती हैं।

(- गणेश पांडे की रानी से बातचीत पर आधारित)

Monday, 8 October 2018

अभिनय के लिए द्वारपाल और नंदी छोड़ आए खाना

पर्दे के पीछे की लीला : लाइव

लीला पर्दे के आगे ही नहीं पीछे भी होती है। कक्षा सात में पढऩे वाला अभिषेक व आठवीं का दीपक स्कूल से लौटने ही रामलीला मैदान पहुंच गए हैं। वह सीधे डे्रसिंग रूम पहुंचते हैं। दोपहर के दो बजने में अभी कुछ मिनट बाकी हैं, लेकिन कलाकारों का मेकअप शुरू हो गया है। साथियों को तैयार देख अभिषेक व दीपक मेकअप आर्टिस्टों की तरफ लपकते हैं। पिछली पंक्ति में बैठा दीपक साथियों से कहना है आज स्कूल था तो आने में देर हो गई। खाना भी नहीं खा पाया। जवाब में अभिषेक कुछ कहता, हाथ में ब्रश थामे गोस्वामी अंकल बोल पड़े, अब किसी अन्य कलाकार को तैयार नहीं किया जाएगा।

उत्साहित दिख रहे अभिषेक और दीपक के चेहरे पर अब थोड़ी चिंता दिखने लगी है। गोस्वामी अंकल अपने साथी गब्बर और ठाकुर की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं- देखो, अब किसी को तैयार मत करना। जो लिस्ट हमें मिली थी उसके अनुसार रावण सेना के लिए चार राक्षस व ऋषि-मुनि के किरदार के लिए चार पात्र तैयार हो गए हैं। यह सुन अभिषेक बाहर की तरफ चला गया। बाहर कुछ लोग स्टेज की सजावट में लगे हैं।
बाहर की तरफ गया अभिषेक पात्र जुटाने की जिम्मेदारी देख रहे अंकल को ड्रेसिंग रूम में ले आया। अभिषेक देरी से आने की मजबूरी बताते हुए कहता है उसे रोल करना है। कुछ सोचने के बाद दीपक, अभिषेक को द्वारपाल व हेमंत को नंदी का रोल देने की सहमति बनती है। तीनों मेकअप आर्टिस्ट के सामने तैयार होने के लिए बैठ जाते हैं। तीनों के चेहरे पर जीत की चमक बिखर चुकी है। गोस्वामी अंकल कहते हैं थोड़ी जल्दी हाथ चलाएं, साढ़े चार बजे से लीला शुरू हो जाएगी।
इधर, ड्रेसिंग रूम में अब थोड़ी रोनक बढऩे लगी है। करीब २५-३० वर्षों से शहर की प्राचीन रामलीला से जुड़े मेकअप आर्टिस्ट नरेश गोस्वामी, गब्बर गौड़, ठाकुर विश्व प्रकाश पहले किरदार निभाते थे। अब पर्दे के पीछे रहकर राम सेवा करते हैं।
(- रामलीला के ड्रेसिंग रूम से गणेश पांडे)

Thursday, 13 September 2018

शास्त्र सम्मत नहीं है पीओपी के गणेश की स्थापना

गणेश पांडे : 
गणपति बप्पा मोरया की धुन एक बार फिर गूंजने लगी है। जगह-जगह आकर्षक पंडाल सजे हैं। कुमाऊं का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी में तो हर तरफ पंडाल ही पंडाल हैं। मानो एक तरह से देखा-देखी का चलन चल पड़ा है। दो वर्ष पहले मैंने पड़ताल करते हुए पाया था कि हल्द्वानी में गणेश महोत्सव मनाने की परंपरा की शुरुआत करीब 12 साल पहले 2004 में हुई। यह परंपरा इतनी तेजी से फैली कि चौदह साल में 35 से 40 जगहों पर सार्वजनिक आयोजन होने लगे। घरों व दो-तीन परिवारों के बीच होने वाले आयोजन गिनती में शामिल नहीं हैं। इन्हें शामिल किया जाए तो संख्या सैकड़े से ऊपर पहुंचती है।

दरअसल, बात महोत्सव के विस्तार की नहीं है, बल्कि गणेश महोत्सव, दुर्गा महोत्सव जैसे धार्मिक आयोजनों में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से निर्मित मूर्तियों का बढ़ता चलन और मूर्तियों को आकर्षक रूप देने के लिए जहरीले कैमिकल का प्रयोग चिंता पैदा करने वाला है। आस्था से जुड़ा मामला होने से लोग इस पर बात करने से कतराते रहते हैं।
हमारे धर्म, शास्त्रों से हमें मूर्ति पूजन की परंपरा का ज्ञान होता है। मूर्ति पूजन की परंपरा कैसी हो, इसका ज्ञान भी शास्त्र हमें कराते हैं, लेकिन प्रतिस्पर्धा और सब कुछ रेडीमेड चाहने के दौर में इस पहलू को हम भुलते जा रहे हैं। पीओपी और कैमिकल युक्त मूर्ति पूजन की परंपरा जो आज चल पड़ी है, उसे शास्त्र सम्मत नहीं कहा जा सकता। दरअसल, हिंदू शास्त्रों में मिट्टी की प्रतिमा का पूजन करने के तमाम संदर्भ मिलते हैं। मिट्टी की प्रतिमा का पूजन इसलिए भी सर्वश्रेष्ठ और शुभ माना जाता है क्योंकि मिट्टी पवित्र होती है। मिट्टी में अग्नि, वायु, जल, आकाश व पृथ्वी जैसे पंच तत्व विद्यमान रहते हैं।
पीओपी से निर्मित मूर्तियों का पूजन शास्त्र सम्मत क्यों नहीं है अब इस पर बात। ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेश खंड में उल्लेख है कि माता पार्वती ने मिट्टी की गणेश प्रतिमा बनाकर उसका प्राकट्य किया था। भगवती गौरी मिट्टी से बने बालक का विग्रह बनाकर प्राण तत्व का आह्वान करती हैं। जिस तरह पूजा-पाठ और धार्मिक आयोजनों में चमड़ा, एल्युमीनियम आदि का उपयोग वर्जित माना गया है, इसी तरह प्लास्टर ऑफ पेरिस को भी शास्त्र सम्मत नहीं माना जा सकता।
अब बात पीओपी से बनी प्रतिमा के नुकसान पर। पीओपी से निर्मित मूर्तियों पर रसायनिक कलर किए जाते हैं, जो पानी को जहरीला बना देते हैं। जिससे कई तरह के चर्म रोग और अन्य घातक बीमारियां होने का खतरा रहता है। जिस नदी, तालाब में मूर्तियों को प्रवाहित किया जाता है, उसमें रहने वाली मछली आदि जलीय जंतुओं के जीवन को भी इससे खतरा उत्पन्न हो जाता है।
अब व्यवहारिक पहलू पर बात करते हैं। पीओपी से निर्मित मूर्तियों को सांचे से बनाया जाता है। जिससे इनकी फिनिशिंग अच्छी आती है और चमकदार कलर करने से शाइनिंग भी अच्छी मिलती है। अंदर से खोखली होने से मिट्टी की मूर्ति की अपेक्षा पीओपी निर्मित मूर्तियां थोड़ी हल्की होती है। अब सवाल है कि क्या अच्छी शाइनिंग व फिनिशिंग मात्र के लिए प्रकृति और शास्त्रों से खिलवाड़ किया जाए। वह भी तब जब हमारे शास्त्र प्रकृति पूजन का संदेश देते हैं। फिर भगवान गणेश तो प्रतीक के रूप में पूजे जाते हैं। विभिन्न धार्मिक अवसरों पर मिट्टी व गाय के गोबर से गणेशजी की स्थापना होती है। दूब के तिनके मात्र से प्रसन्न होने वाले भगवान गणेश के लिए ऊंची और आकर्षक मूर्तियों का भला कोई औचित्य भी है।

Saturday, 11 August 2018

कहानी : सैलरी



सतेंद्र डंडरियाल  :

सैलरी कब छोटी से बड़ी हो गई पता ही नहीं चला। तब मां ने कहा था, लो आ गई तुम्हारी सैलरी, अब संभालो इसे। मोहल्ले वालों ने प्यार-प्यार में बच्ची का नाम सैलरी ही रख दिया। प्यार से सब उसे सैलरी ही बुलाते थे।

रामदुलारी पेट से थी। नवां महीना चल रहा था। अस्पताल और दाई के खर्चों के लिए रामदुलारी की सास अपने बेटे रामवतार को बार-बार फोन कर कहती, पैसे भेज दो तो रामअवतार का यही जवाब होता कि अभी सैलरी नहीं आई। एक दिन वह वक्त भी आया जब रामदुलारी की बेटी पैदा हुई। मां ने बेटे को खुशखबरी देने के लिए फोन किया और साथ में यह भी कह दिया कि तुम्हारी सैलरी आ गई। मां का फोन नंबर देखते ही बेटे को लगा कि जरूर सैलरी के बारे में पूछेगी। उसने फोन उठाया, मां के कुछ कहने से पहले ही बोल पड़ा अभी सैलरी नहीं आई। मां ने कहा वो छोड़ अब तो सचमुच तेरी सैलरी आ गई, बेटी पैदा हुई है। रामअवतार बोला बहुत अच्छा है मां मैं जल्द ही छुट्टी लेकर घर आऊंगा।

गांव से दूर रामअवतार शहर की एक फैक्ट्री में चौकीदारी का काम करता था। फैक्ट्री काफी समय से बंद पड़ी थी। रामअवतार की जिम्मेदारी में केवल फैक्ट्री के बंद गेट पर पहरा देना था। तीन साल पहले शादी हुई थी। उसके बाद रामअवतार रोजगार की तलाश में शहर आ गया। यहां जैसे तैसे एक फैक्ट्री में चौकीदारी की नौकरी मिल गई। दो-तीन महीने में फैक्ट्री का मैनेजर एक चक्कर लगाकर रामअवतार को कुछ पैसे दे जाता। तीन-चार महीनों में भी उसे एक महीने की तनख्वाह मिलती। रहने का ठिकाना फैक्ट्री में ही था। कभी कभार वह घर थोड़ा बहुत पैसे भेज दिया करता था। शादी के बाद उसके घर में पहला बच्चा होने वाला था। रामअवतार भीतर-ही-भीतर बहुत खुश था, लेकिन इस बार छह महीने से उसे एक भी पैसा नहीं मिला। उसके पास फैक्ट्री के मैनेजर का फोन नंबर तो था, पर बार-बार फोन करने के बाद भी मैनेजर यही कहता ठीक है कल आऊंगा परसो आऊंगा, तुम्हारे पैसे कहीं भागे नहीं जा रहे हैं। प्रसव के दौरान वह रामदुलारी को देखने भी नहीं जा सका। बच्ची पैदा होने के दस दिन बाद रामअवतार गांव पहुंचा। घर पहुंचते ही मां ने कहा यह देख तेरी सैलरी आ गई। रामअवतार ने अपनी फूल सी बच्ची को गोद में उठाया तो खुशी से उसकी आंखों में आंसू छलक गए। खुशी खुशी तीन-चार दिन घर में बिताए और वापस शहर लौट गया। घर में बच्चे को देखने के लिए आसपास की औरतें आती तो मां कहती यह सैलरी है। सैलरी जब पेट में थी तब इसके बाप की सैलरी नहीं आई और यह पहले आ गई। यह सब वह अपनी बहू को ताने के तौर पर सुनाती। मोहल्ले की औरतें पुचकारती सैलरी को थी और सुनाती रामदुलारी को।
वक्त बीत रहा था सैलरी अब बड़ी हो रही थी। रामअवतार जब कभी घर फोन करता तो रामदुलारी कहती तुम्हारी सैलरी तुम्हें बहुत याद करती है। टुकुर टुकुर तुम्हारी फोटो देखती है। तुम्हारी आवाज सुनती है, अब तीन महीने की हो गई है। इस बार घर आओगे तो सैलरी के लिए अच्छी सी फ्रॉक लाना।
बरसात का मौसम बीत रहा था। अब सर्दियां दस्तक देने वाली थी। फैक्ट्री के कमरे में रामअवतार के पास एक चारपाई कुछ बर्तन और पांच किलो के छोटे सिलेंडर के अलावा कुछ भी नहीं था। जैसे तैसे दिन काट रहे रामअवतार की आंखों के आगे रात दिन की बच्ची का चेहरा घूमता। फूल सा मासूम खिलखिलाता हुआ चेहरा। सपने में उसे रंग बिरंगी फ्रॉक नजर आती। मई के महीने की सैलरी रामअवतार को सितंबर में मिली। अगले ही दिन वह बाजार गया। कई दुकानों के चक्कर लगाने के बाद एक फ्रॉक पसंद आई। जिसे उसने अपनी बच्ची के लिए खरीद लिया। मैनेजर से एक हफ्ते की छुट्टी लेकर गांव पहुंचा। मां से मुलाकात हुई। मां ने फिर छूटते ही कह दिया अब तो तुम्हारी सैलरी टाइम पर आ जाती होगी।
हां मां टाइम पर तो क्या। गहरी सांस भरते हुए रामअवतार ने कहा था। बोला, मैनेजर साहब ज्यादातर बाहर रहते हैं। जब शहर आते हैं तो सैलरी भी दे जाते हैं।
मैं सोच रही हूं घर बहुत पुराना हो चुका है इस बार की बरसात में जगह जगह से टपकता रहा। थोड़े बहुत पैसे हो जाते तो छत की मरम्मत करवा देते। मैंने मिस्त्री से बात की थी वो बोला दस हजार लगेंगे।
हां मां मरम्मत तो करवानी पड़ेगी नहीं तो छत गिर जाएगी। अगली बार सैलरी आएगी तो पैसे भेज दूंगा। अरे इस सैलरी को दूध क्यों नहीं पिलाती है। कितनी देर से चिल्ला-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठा रखा है। रामदुलारी बोली मांजी अभी कुछ देर पहले ही तो पिलाया था। फिर भूख लग गई होगी।
शाम ढल रही थी रामअवतार अगली सुबह शहर जाने की तैयारी में जुटा हुआ था। रात को भोजन के बाद रामदुलारी से बात करने की फुर्सत मिली। तो कहने लगा हम अपनी बेटी को खूब पढ़ाएंगे। मैं इसे शहर के अच्छे स्कूल में भर्ती करवाऊंगा। देखना एक दिन हमारी बेटी हमारा नाम रोशन करेगी।
और सुनो! तुम उसे सैलरी-सैलरी मत कहा करो। मुझे यह नाम बिल्कुल पसंद नहीं। बच्चों का जैसा नाम होता है वैसा नाम रखो। अभी तो सब प्यार-प्यार में हंसी-ठिठोली में सैलरी सैलरी कह रहे हैं। बाद में कहीं यही नाम पड़ गया तो। कितनी सुंदर और गोल मटोल है हमारी बच्ची। इसका नाम तो राधा होना चाहिए। तुम स्कूल में यही नाम लिखवाना। अरे सुन रही हो या सो गई। लो उसने सुना ही नहीं और मैं खामखां नाम सुझाने में उलझा रहा।
सुबह की पहली बस से रामअवतार शहर आ गया। फिर से बंद फैक्ट्री के गेट पर चौकीदारी करने के लिए। अब अक्सर रामदुलारी से फोन पर बातें होती रहती। बच्ची के हाल-चाल उसकी शरारतें सुनकर वह मन ही मन खुश होता। समय पंख लगा कर मानो उड़ रहा था। रामदुलारी ने कहा सैलरी का आंगनबाड़ी में दाखिला करवा दिया है। क्या नाम लिखवाया। रामअवतार ने उत्सुकता वश पूछा था। रामदुलारी बोली, नाम तो सैलरी ही लिखा है।
रामअवतार सोचने लगा नाम में क्या रखा है सैलरी ही सही। वैसे भी सैलरी के पीछे दुनिया पागल है। आंगनबाड़ी से होते हुए सैलरी अब स्कूल जाने लगी। यहां भी मास्टरजी ने उसका नाम सैलरी लिख दिया। बोले बड़ा अंग्रेजी सा नाम रखा है मां-बाप ने तेरा। बूढ़ी मां अब अक्सर बीमार रहने लगी उम्र का तकाजा था। रामअवतार के पैदा होने के कुछ ही महीनों के बाद उसके बापू चल बसे। तब से चार बच्चों की परवरिश का जिम्मा अकेले ही सम्भाला। तीन बेटियों के हाथ पीले किए। चार भाई बहिनों में सबसे छोटे रामवतार की जिम्मेदारी सिर पर थी वह भी पूरी हुई। मन में बिना कोई बोझ लिए एक दिन बूढ़ी मां खाली हाथ दुनिया से रुखसत हो गई।
रामअवतार कई दिनों तक घर में गुमसुम रहा। अब उसने रामदुलारी को अपने साथ शहर ले जाने का फैसला किया। तीन साल की हो चुकी सैलरी घर में भीड़भाड़ देखकर काफी खुश नजर आ रही थी। इस माहौल में भी लोग प्यार से कह देते सैलरी तो आप अपने बापू के साथ शहर जाएगी। टिन के बक्शे में थोड़ा बहुत सामान समेट कर रामअवतार अपनी पत्नी और बच्ची को लेकर शहर रवाना हो गया। पास के एक स्कूल में बच्ची का दाखिला करा दिया। पंचायत से मिले प्रमाणपत्र के आधार पर स्कूल में बच्ची का नाम सैलरी ही दर्ज किया गया।
वक्त यूंही बीत रहा था। घर का खर्च चलाने के लिए अब सैलरी की मां भी आसपास के घरों में काम करने लगी। सैलरी धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। इधर काफी समय से बंद पड़ी फैक्ट्री के दोबारा खुलने की भी सुगबुगाहट ने रामवतार के साथ ही कई मजदूरों के चेहरों पर खुशी ला दी। रामअवतार सोचने लगा फैक्ट्री चालू हो जाएगी तो कम से कम उसे सैलरी वक्त पर मिल जाया करेगी।
सैलरी को धीरे-धीरे अपने नाम का मतलब भी समझ आने लगा। पढ़ाई में उसका खूब मन लगता। रामदुलारी भी कहती पढ़ेगी नहीं तो मेरे जैसे अंगूठा छाप रह जाएगी। पहली ही कक्षा में सैलरी ने अव्वल दर्जा हासिल किया। साल-दर-साल सैलरी बढ़ती गई। प्राथमिक से उच्च प्राथमिक स्कूल में दाखिला हुआ तो स्कूल में उसके नाम को लेकर काफी चर्चाएं होती।
साथ पढऩे वाली लड़कियां उससे पूछती तुम्हारा नाम सैलरी किसने रखा, बड़ा इंट्रस्टिंग नाम है।
यह नाम मुझे मेरी दादी ने दिया था। मैंने एक दिन मां से पूछा था तो मां ने कहा तेरी दादी ही तेरा नाम रख गई।
सैलरी इस नाम को बचपन से सुनते आ रही थी। इसलिए उसे यह नाम उसे कभी अटपटा नहीं लगा। कई बार उसे स्कूल के शिक्षकों ने सुझाव भी दिया कि तुम अपना नाम बदल लो, लेकिन सैलरी ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया। जो नाम था वह यूं ही चलता रहा। हाईस्कूल में एक बार फिर मौका दिया गया कि वह अपना नाम चेंज करवाना चाहे तो करवा सकती है। बस इसके लिए एक शपथपत्र देना होगा, लेकिन सैलरी ने अपना नाम चेंज नहीं करवाया। रामअवतार बहुत खुश होता कि उनके खानदान से पहली बार कोई दसवीं तक पहुंचा है। वरना ज्यादातर पांचवीं पास के बाद ही हार मान गए।
सैलरी अब अपने नाम का अर्थ बहुत अच्छी तरह से जानती थी। उसे पता चला कि 'सैलरी' शब्द लैटिन भाषा के 'सैलेनियम' से आया है, जिसका मतलब होता है 'नमक'। प्राचीन ईरान में इसका मतलब था, राजा की सेवा करना और भरण-पोषण के तौर पर राजा से सैलरी प्राप्त करना।
सैलरी ने जब अपने बापू और मां को यह बात बताई तो दोनों खूब हंसे। रामअवतार बोले तेरी दादी को शायद यह बात पता रही होगी। उन्होंने कभी हमें तो नहीं बताया, लेकिन तुम्हारा नाम सैलरी रख दिया। जिसकी सबको जरूरत है। सैलरी ने दसवीं में स्कूल टॉप किया तो रामअवतार की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आज उसने मिठाई बांटी। सैलरी अब स्कूल में सबकी चहेती बन गई। शिक्षक कहते बेटी हाईस्कूल में तुमने हमारा नाम रोशन किया। अब आगे तुमसे उम्मीदें बढ़ गई हैं। तुम हमारे स्कूल का नाम पूरे जिले में ऊंचा करो।
सब कुछ ठीक चल रहा था सैलरी अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ रही थी। अब वह वक्त भी आया जिसका उसे बेसब्री से इंतजार था। स्कूल की शिक्षा पूरी हुई और कॉलेज में दाखिला लिया। इधर एक बार फिर फैक्ट्री में कामकाज शुरु हो चुका था। बाइस-तेईस सालों में पहली बार रामअवतार की सैलरी वक्त पर आई। ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद सैलरी ने प्रशासनिक सेवाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए दिन रात एक कर दिया। वह मां से कहती जब मैं कलेक्टर बन जाऊंगी तो पहली सैलरी तुम्हारे हाथ में दूंगी। रामअवतार उसकी बातों को सुनकर कहता सैलरी कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला। काश इस वक्त मां जिंदा होती तो मैं कहता देखो मां मेरी सैलरी भी बढ़ गई और वक्त पर भी आने लगी है, बल्कि अब तो बोनस मिलने वाला है। हंसी के ठहाके लगा रहे रामअवतार और रामदुलारी का मुंह सैलरी ने लड्डू से बंद कर दिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Thursday, 28 June 2018

गांव में लगाया इको फ्रेंडली प्लांट, हिमांशु के प्रयास से खुलेगी रिवर्स माइग्रेशन की राह


हिमांशु पंत

गणेश पांडे, हल्द्वानी : रोजगार की तलाश में अपनी माटी छोडऩे वाले युवाओं के लिए सीमांत पिथौरागढ़ जिले के 33 वर्षीय हिमांशु पंत ने मिसाल कायम की है। बेरीनाग तहसील के बजेत (कालाशिला) गांव निवासी हिमांशु ने रोजगार की तलाश में शहरों की खाक छानने के बजाय अपने गांव में इंको फ्रेंडली बैग तैयार करने का प्लांट लगाया है। हिमांशु ने अपने प्लांट को ग्रीन हिमालय इको फ्रेंडली बैग नाम किया है। स्थापना के पांच माह में ही यह प्लांट आसपास के गांवों के आठ युवाओं को रोजगार उपलब्ध करा रहा है। हिमांशु को उम्मीद है अगले छह माह में वह 25 से 30 युवाओं को अपने प्लांट से जोड़ चुके होंगे। हिमांशु की पहल ने रोजीरोटी के खातिर शहर पलायन कर गए युवाओं को रिवर्स माइग्रेशन की उम्मीद भी जगाई है।


ऐसे आया आइडिया
बीएड और अकाउंट की पढ़ाई करने वाले हिमांशु दस साल तक एक शहर से दूसरे शहर भटकते रहे। कभी टीचिंग की तो कभी सीए के साथ काम किया। फैक्ट्री में भी हाथ आजमाया। हिमांशु बताते हैं पांच साल पहले से हल्द्वानी में एलआइसी के मार्केटिंग विभाग में काम करता था। विचार आया कि दूसरे की योजनाओं का प्रचार करने के बजाय अपना काम किया जाए। एक दोस्त ने इको फ्रेंडली बैग तैयार करने के प्लांट का प्रोजेक्ट दिखाया तो इस पर काम करने का मन बना लिया।

परिवार ने दिया हौसला
हिमांशु बताते हैं प्लांट लगाने से पहले मन में सवाल था कि काम चलेगा कि नहीं। पिता और छोटे भाइयों ने प्रोत्साहित किया। खादी ग्रामोद्योग बोर्ड से प्रधानमंत्री स्वरोजगार योजना के तहत आवेदन करने पर 25 लाख का लोन स्वीकृत हो गया। करीब इतनी ही राशि पिता नारायण पंत के (अस्पताल से सुपरवाइजर पद से) रिटायर्ड होने पर मिली रकम से मिलाकर जनवरी में प्लांट व प्रिंटिंग मशीन लगा लिया। हिमांशु का एक भाई सीए के साथ काम करता है, दूसरा एयरफोर्स में कार्यरत है।
बेरीनाग स्थित प्लांट में इको फ्रेंडली बैग तैयार करते युवा।
 

हल्द्वानी तक से आ रही डिमांड
पांच माह पहले महज दस दुकानों से शुरू हुआ काम आज शहरों तक पहुंच गया है। हिमांशु बताते है पहले बेरीनाग बाजार से ही डिमांड आती थी। अब पिथौरागढ़, बागेश्वर, गरुड़, अल्मोड़ा, चंपावत के साथ हल्द्वानी से भी बैग की डिमांड आ रही है। प्लांट में डी-कट, यू-कट बैग के साथ शॉपिंग में प्रयोग होने वाले लूप (फीते) वाले बैग भी तैयार होते हैं।

छह से 15 हजार देते हैं वेतन
प्लांट में काम करने वाले युवाओं को छह हजार से 16 हजार रुपये मासिक वेतन दिया जाता है। आपरेटर को छोड़ शेष आठ युवक स्थानीय हैं। कम वेतन वाले युवाओं से पार्ट टाइम काम किया जाता है।

Saturday, 9 June 2018

पप्पू कार्की : मुश्किलों को हराया, खुद जिंदगी से हार गए

:::स्मृति शेष:::

 गणेश पांडे, हल्द्वानी : मोर्चरी के बाहर पोस्टमार्टम के लिए लाए जाने वाले के परिजन, पुलिस वाले और पत्रकार ही दिखाई देते हैं। मगर शनिवार को मोर्चरी के बाहर नजारा दूसरा था। भीड़ में तमाम लोग ऐसे थे, लोक गायक पप्पू कार्की जिनके न तो रिश्तेदार थे और न पारिवारिक संबंधी। कई लोग अपने पसंदीदा कलाकार की अंतिम झलक पाने उमड़ आए थे। लोगों के दिलों में राज करने का ये मुकाम कार्की को लंबे संघर्ष के बाद हासिल हुआ था।

वर्ष 1998 में महज 14 वर्ष की आयु में पप्पू कार्की ने पहला गीत रिकॉर्ड कराया। मगर पहचान 2010 में आई 'झम्म लागछी' एलबम के 'डीडीहाट की झमना छोरी..' गीत से मिली। 12 साल के संघर्ष में पप्पूदा ने दिल्ली समेत कई महानगरों में हाथ-पांव मारे। 2003 से 2006 तक दिल्ली में पेट्रोल पंप, प्रिंटिंग प्रेस और बैंक में चपरासी तक की नौकरी करनी पड़ी। इसके बाद रुद्रपुर का रुख किया और दो साल डाबर कपंनी में ठेकेदारी प्रथा में काम किया। पिछले दिनों अपने स्टूडियो में मुलाकात के दौरान पप्पूदा ने बताया था कि दर-दर भटकाव से परेशान होकर उन्होंने गांव लौटने का मन बना लिया था। इसी दौरान लोक गायक प्रह्लाद मेहरा व चांदनी इंटरप्राइजेज के नरेंद्र टोलिया के साथ मिलकर 'झम्म लागछी' एलबम की, इससे बाद पप्पू कार्की की जमीन तैयार होती चली गई। हालिया 'तेरी रंग्याली पिछौड़ी' वीडियो गीत एक मिलियन से ज्यादा लोग देख चुके हैं।
::::::::::::
पंचेश्वर बांध पर लाना चाहते थे गीत
लोक गायक पप्पू कार्की के करीबी रहे लोक गायक संदीप आर्य ने बताया कि पप्पूदा ने पंश्चेश्वर बांध पर लोक गीत रचा था। 'न छोडू ईजा की माटी, न छोडू आपणी थाती' यानी अपनी मातृभूमि को नहीं छोड़ंगे और न अपनी जड़ों को छोड़ेंगे। सही समय आने पर वह इसे लोगों के बीच लाने की सोच रहे थे।
::::::::::::
ये सपने भी रह गए अधूरे
नीलम कंपनी के साथ कार्की तीन गीत, 'सुनै की थाली मा', 'रिमा-झिमा पानी' और 'ओ हिमा ह्यू पड़ो हिमाला' की रिकॉर्डिंग के लिए दिल्ली जाने वाले थे। इसके लिए 11 से 13 जून की तिथि तय थी। संदीप ने बताया उन्हें 10 जून की रात निकलना था। इस कारण वह रात ही गौनियारों से लौटने की बात कह रहे थे। छित्कू हिवाल ग्रुप के देवू पांगती के साथ मिलकर कुमाऊंनी रामलीला की रिकॉर्डिंग में जुटे थे। यह काम भी बीच में रुक गया है।
::::::::::
खुद भटकता रहे, दूसरों के लिए खोला स्टूडियो
पप्पूदा ने एक बार बताया कि शुरुआत के दिनों में वह स्टेज पर प्रस्तुति देने लगे थे। कई म्यूजिक कंपनी वाले उनकी गायकी को सराहते, लेकिन जब उनके स्टूडियो गए तो टहलाया जाता था। एक साल पहले दवुवाढूंगा में पीके इंटरप्राइजेज नाम से रिकॉर्डिंग स्टूडियो खोला। कई प्रशिक्षु गायकों ने खुद को यहां तरासा।
:::::::::
कुछ चर्चित लोकगीतऐ जा रे चैत बैशाख मेरो मुनस्यारा
बिर्थी कोला पानी बग्यो सारारा..
डीडीहाट की झमना छोरी
मधुली.. रूपै की रसिया
पहाणो ठंडो पांणी
तेरी रंगीली पिछौड़ी
छम छम बाजलि हो

Saturday, 2 June 2018

ऐसी शिव भक्ति पहले नहीं देखी होगी. मानसरोवर यात्रा पर तैयार की साढ़े तीन घंटे की डॉक्यूमेंट्री

ऐसी शिव भक्ति पहले नहीं देखी होगी. कैलास मानसरोवर यात्रा पर साढ़े तीन घंटे की डॉक्यूमेंट्री तैयार की. भक्तों को मुफ्त बांटते हैं डीवीडी.. हैदराबाद निवासी और मुंबई में रह रहे रामदास बोयापल्ली से
गणेश पांडे की बातचीत पर आधारित विशेष खबर..



रामदास बोयापल्ली
देवाधिदेव महादेव के आपने अनगिनत भक्त देखे होंगे। एक भक्त ऐसे भी हैं, जिन्होंने पूरे कैलास मानसरोवर यात्रा की डाक्यूमेट्री तैयार की है। इतना ही नहीं, डाक्यूमेंट्री की डीवीडी बनाकर शिव भक्तों को मुफ्त बांट रहे हैं। यह वीडियो कैलास मानसरोवर जाने वालों को गाइड भी कर रही है।
हैदराबाद निवासी 45 वर्षीय रामदास बोयापल्ली मुंबई में इलेक्ट्रानिक्स सामान का व्यापार करते हैं। बोयापल्ली ने उत्तराखंड के हल्द्वानी, धारचूला से लिपुलेख दर्रा होते हुए लगातार तीन बार कैलास मानसरोवर की यात्रा की। 2014 में पहली बार यात्रा पर गए थे। बोयापल्ली ने दिल्ली से कैलास पर्वत के दर्शन, मानसरोवर की परिक्रमा से लेकर वापस दिल्ली तक की पूरी यात्रा की वीडियोग्राफी की है। साढ़े तीन घंटे की वीडियो फिल्म में बस के सफर के साथ धारचूला, कालामुनी, गुंजी, तकलाकोट के दुर्गम रास्ते, प्राकृतिक सौंदर्य के साथ पल-पल बदलते मौसम को कवर किया है। बैकग्राउंड साउंड के तौर पर शिव स्त्रोत, शिव पंचाक्षर, रुद्राष्टक स्त्रोत, शिव तांडव स्त्रोत आदि प्रयोग किया गया है।


::::::::::
हाई क्वालिटी कैमरा का प्रयोग
वीडियो कैमरा को लेकर आरडी बोयापल्ली को बड़ा जुनून रहा है। उनके पास विश्व की एडवांस तकनीक के 360 डिग्री में वीडियो शूट करने वाले वाटर प्रूफ, हाईरोल, थ्रीडी तकनीक कैमरा हैं। जो बड़े प्रोडेक्टशन हाउस में काम आते हैं। बोयापल्ली चार कैमरा को सिर, थ्रीडी चश्मा, हैंड कैमरा के रूप में एक साथ चलाते हैं। उच्च तकनीक के चलते वीडियो में संबंधित स्थान का तापमान, ट्रेक का स्थान, समुद्र सतह से ऊंचाई के साथ व्यक्ति की दिल की धड़कन भी पता चलती रहती है।

मानसरोवर यात्रा के दौरान बोयापल्ली का क्लिक फोटो

:::::::::::
कैलास यात्रियों को कर रही गाइड
मोबाइल पर हुई बातचीत में आरडी बोयापल्ली ने बताया कि अब तक 200 से अधिक डीवीडी तैयार कर बांट चुके हैं। इसमें सबसे अधिक वो लोग हैं जो 2015 और 2016 में बैच में उनके साथ यात्रा कर चुके हैं। फेसबुक, यूट्यूब पर वीडियो यात्रियों को गाइड करने के काम आ रही है।

रामदास बोयापल्ली

::::::::::
सोशल मीडिया पर किया अपलोड
वर्ष 2016 की 22 दिन की यात्रा की वीडियो को एडिटिंग करने में छह माह का समय लगा। बोयापल्ली ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन में वीडियो को पांच से सात मिनट का काटकर अपलोड किया है। कानपुर निवासी कैलाशी बीना भाटिया के बनाए फेसबुक ग्रुप कैलास मानसरोवर यात्रा लिपुलेख जत्था 2 में वीडियो शेयर की गई हैं। यूट्यूब पर रामदास बोयापल्ली सर्च कर वीडियो देखी जा सकती हैं।

Saturday, 14 April 2018

ग्रामीण जनजीवन बयां करती खाती गांव के घरों की दीवारें

-बागेश्वर के पिंडर घाटी के गांव की अद्भुत दास्तां
-देश-दुनिया का ध्यानाकर्षित करने की नायाब पहल

गणेश पांडे, हल्द्वानी : विश्व प्रसिद्ध पिंडारी ग्लेशियर के ट्रेकिंग रूट के किनारे स्थित खाती गांव के घरों की दीवारें इन दिनों खिल उठी हैं। घरों की दीवारें यहां के कल्चर और ग्रामीण जनजीवन का दर्शन करा रही हैं। यह सब प्रयास इसलिए हुआ है ताकि देश-दुनिया का ध्यान इस तरफ आकर्षित हो। हंस फाउंडेशन और प्रोजेक्ट फ्यूल के तहत देश-दुनिया से पहुंचे 40 पेंटर एक माह के दौरान गांव के 70 घरों की दीवारों पर विभिन्न आकृतियां उकेर चुके हैं। पेंटिंग के माध्यम से पर्वतीय महिलाओं के संघर्ष, ग्रामीण उत्सव, शादी-विवाह, ऐपण कला आदि को दर्शाया गया है।

ये है पेंटिंग का मकसद
हंस फाउंडेशन से जुड़े आईवीडीपी के प्रोग्राम मैनेजर दिनेश मेनारिया बताते हैं कि बागेश्वर जिला मुख्यालय से 75 किमी दूरी पर स्थित पिंडर घाटी के 11 गांव सड़क, बिजली, पानी जैसे जरूरी सुविधाओं से वंचित हैं। कई गांवों में संचार सुविधा भी नहीं है। खाती जिले का अंतिम गांव है। एकीकृत ग्राम विकास परियोजना (आईवीडीपी) के तहत हंस फाउंडेशन ने खाती, वाछम, सोराग, वडियाकोट, चिलपाड़ा, कुलाड़ी, वोराचक जारकोट, कालौ गांवों को तीन साल के लिए गोद लिया है। इन गांवों में 950 परिवार रहते हैं। सोशल मीडिया समेत अन्य माध्यमों के जरिए यहां के गांव देश-दुनिया के सामने आ सकें, इसलिए पेंटिंग का आइडिया आया। ग्रामीण मानते हैं इससे सरकार व जनप्रतिनिधि का ध्यान बुनियादी सुविधाएं की तरफ जाएगा।



प्रोजेक्ट फ्यूल टीम की मेहनत

26 वर्षीय दीपक रमोला के निर्देशन और हेड आर्टिस्ट पूर्णिमा सुकुमार के नेतृत्व में 40 आर्टिस्ट की टीम ने 70 घरों पर पेंटिंग की। दीपक ने पिछले साल जून में टिहरी जिले के सौड गांव में पलायन के कारण खाली हो गए 50 से अधिक घरों पर पेंटिंग की। इसके पीछे लोगों को अपनी जड़ों की तरफ लौटाने का प्रयास था। सोशल मीडिया समेत दूसरे मंच पर इस प्रयास को काफी सराहना मिली।



कौन हैं दीपक रमोला

देहरादून के रहने वाले दीपक मुंबई विवि से मास मीडिया स्टडीज में गोल्ड मेडलिस्ट होने के साथ लेखक, अभिनेता, गीतकार हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, कैसर थिएटर प्रोडक्श और नो लाइसेंस के साथ काम करने के बाद दीपक ने थियेटर में अनुभव हासिल किया। अभिनेता के रूप में दीपक ने राजश्री प्रोडक्शन के 'आइ लाइ लाइफ' में काम किया है। सलमान खान के साथ 'बॉडीगार्ड' और धारावाहिक 'ससुराल सिमर का' में भी काम किया है। ङ्क्षहदी फिल्म 'मांझी द माउंटेन मैन' और 'बजीर' के लिए गीत लिखे हैं।

हर पाठ पढ़ा देता है जिंदगी का सबक

दीपक  कहते हैं मेरी मां पुष्पा रमोला केवल पांचवीं तक पढ़ी थीं, लेकिन उनके पास ज्ञान का अथाह भंडार था। जब मैंने इस बारे में मां से पूछा तो उन्होंने कहा कि जिंदगी का सबक दुनिया का हर पाठ पढ़ा देता है। तभी से उनके दिमाग में आम लोगों के ज्ञान को सीखने, बचाने और उसे बांटने की प्रवृति पैदा हुई। इसी के तहत 2009 में 'प्रोजेक्ट फ्यूल' की शुरुआत की।

Monday, 9 April 2018

पिछौड़ा : हमारा गौरव ही नहीं, पहचान भी

पिछौड़ा..। एक ऐसा शब्द जो जहन में आता है तो ओढऩी सरीके एहसास कराता है और अगर आंखों के सामने आ आए तो कुमाऊंनी महिलाओं की पारंपरिक परिधानों की संपूर्णता का दीदार करा देता है। परंपरागत रूप से कुमाऊं अंचल की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा पिछौड़ा आज के बाजारवाद में भी हमारी संस्कृति में रचा-बसा है। समय के साथ पिछौड़े भले ही आकर्षक और डिजाइनदार हो गया हो, लेकिन गौरवांवित होने वाली बात यह है कि रंगवाली पिछौड़ा हमारी संस्कृति से अलग नहीं हुआ। कुमाऊं अंचल के साथ सुदूर शहरों और सात समंदर पार बस गए प्रवासी महिलाए भी विभिन्न शुभ अवसरों पर पिछौड़ा जरूर पहनती हैं।



पिछौड़ा का महत्व और प्रयोग

कुमाऊं में दुल्हन के लिए पिछौड़ा उतना ही महत्व रखता है, जितना पंजाबियों के लिए फुलकारी और हैदराबादी महिलाओं के लिए दुपट्टा। पिछौड़ा शादीशुदा महिला के सुहाग का प्रतीक है। रंगा होने के कारण इसे रंगवाली पिछौड़ा कहा जाता है। परंपरा के अनुसार उत्सव, सामाजिक समारोह व धार्मिक अवसरों पर पहना जाता है। विवाह में कन्या को दी जाने वाली ड्रेस में पिछौड़ा भी शामिल रहता है। विवाह, नामकरण संस्कार, त्योहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर महिलाएं पिछौड़ा पहनती (ओढ़ती) हैं। घर-परिवार में कोई मांगलिक कार्यक्रम हो तो पिछौड़ा पहने महिलाओं को देख सहज ही अंदाजा हो जाता है कि यह समारोह वाले परिवार से हैं।

संपूर्णता का है प्रतीक

संस्कृति कर्मी जुगल किशोर पेटशाली के अनुसार पिछौड़ा संपूर्णता का प्रतीक है। प्रतीकात्मक रूप में लाल रंग वैवाहिक जीवन की संयुक्तता, स्वास्थ्य तथा संपन्नता का प्रतीक है, जबकि सुनहरा पीला रंग भौतिक जगत से जुड़ाव दर्शाता है।


हाथों से बनाने की थी परंपरा

आज भले ही बाजार में आकर्षक डिजाइन और ऊंची कीमत वाले पिछौड़ा आसानी से उपलब्ध हैं। लेकिन करीब चार दशक पहले तक कॉटन वाइल या हल्के सूती फैब्रिक को रंगकर घर पर ही पिछौड़ा तैयार किया जाता था। करीब तीन मीटर लंबे व सवा मीटर चौड़े सफेद कपड़ा लेकर उसे गहरे पीले रंग में रंगा जाता था। तब सिंथेटिक रंगों का प्रचलन नहीं था। हल्दी या किलमोड़ा (कांटे युक्त जंगली झाड़ी) की जड़ को कूटकर पीला रंग तैयार कर कपड़े को रंगा जाता। हल्दी को कूटकर उसमें नीबू व सुहागा मिलाकर लाल रंग तैयार होता। कपड़े के बीच में स्वास्तिक और चारों कोनों पर सूर्य, चंद्रमा, शंख, घंटी आदि बनाए जाते। सिक्के पर कपड़ा लपेट कर कपड़े पर लाल-लाल गोले बनते है। अब परंपरा निभाने को मंदिर के लिए कपड़े के टुकड़े पर शगुन कर लिया जाता है। 

फोटो सोर्स : स्टोरी में शामिल सभी फोटो गूगल सर्च से उठाई गई हैं। 

Sunday, 4 February 2018

घास को आस में बदल रहीं उत्तराखंड की थारू महिलाएं

  गणेश पांडे : मन में इच्छाशक्ति हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं। उत्तराखंड के ऊधमसिंह नगर जिले की थारू जनजाति की महिलाओं ने इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए बेरोजगार युवाओं के लिए मिसाल कायम की है। यहां की महिलाओं के बनाए फूलदान, श्रृंगार दान, टोकरी जैसे हैंडी क्राफ्ट के उत्पाद मलेशिया में बिक रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि मलेशिया निर्यात किए जा रहे सभी उत्पाद घास के बने हैं।  

कुश घास के बने हैंडी क्राफ्ट के उत्पाद दिखाती थारू जनजाति की युवतियां।

ऊधमसिंह नगर जिले के सितारगंज और खटीमा ब्लॉक में निवास करने वाली थारू जनजाति की महिलाएं परंपरागत रूप से टोकरी निर्माण का काम करती रही हैं। 2002 में स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना के तहत महिलाओं को समूहों के रूप में संगठित किया गया। दो साल पहले समूहों को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत गोद लेकर बाजार उपलब्ध कराने का काम शुरू हुआ। सितारगंज ब्लॉक के नकुलिया गांव के लक्ष्मी व दुर्गा स्वयं सहायता समूह की 20 महिलाएं हैंडी क्राफ्ट बना रही हैं।
फूलदान के साथ युवती।
फूलदान।
बीडीओ मीना मैनाली ने बताया देशभर में लगने वाले राष्ट्रीय सरस मेले में महिलाओं के बनाए उत्पाद बिकते हैं। पिछले साल दिल्ली प्रगति मैदान में लगे स्टॉल में मलेशिया में सामान एक्सपोर्ट करने वाली एक एजेंसी से संपर्क हो गया। 16 जनवरी को पहली खेप में 30 हजार रुपये का माल दिल्ली के जरिए मलेशिया भेजा गया है। जबकि दूसरी खेप में 24 जनवरी को 60 हजार का सामान भेजा गया। मलेशिया की डिमांड के अनुरूप उत्पाद तैयार करने के लिए महिलाओं को दो माह का प्रशिक्षण दिया गया।

यह उत्पाद हो रहे निर्यात
कुश घास से विभिन्न डिजाइन के फूलदान, फल की टोकरी, मेकअप बॉक्स, फ्लावर पॉट, श्रृंगार बॉक्स आदि मलेशिया जा रहा है। भारत में 50 रुपये से 300 रुपये में बिक रहे ये उत्पाद मलेशिया के लिए 150 रुपये से 800 रुपये प्रति पीस की कीमत में बिक रहे हैं।

फूलों की टोकरी।
बरसात में मिलती है घास
 दुर्गा स्वयं सहायता समूह की सदस्य बब्बी राणा बताती है कि टोकरी कुश घास और ङ्क्षरगाल की तैयार होती है। कुश घास के बने उत्पाद अधिक साफ्ट, कलर फुल और आकर्षण होते हैं, इसलिए इनकी मांग अधिक रहती है। कुश घास नदियों के आसपास अधिक पाई जाती है और बरसात के दिनों में महिलाएं जंगल जाकर इसे काट लेती हैं। बाद में धूप में सूखाने के बाद जरूरत के अनुरूप सामग्री बुने जाते हैं।

 क्या है कुश घास 
 कुश एक प्रकार का तृण है। जिसका वैज्ञानिक नाम एरग्रास्टिस साइनोसोरिड्स है। कुश की पत्तियां नुकीली, तीखी व कड़ी होती हैं। हैंडी काफ्ट के साथ इसकी चटाई भी बनती है। कुश पानी में एकाएक खराब नहीं होता। कुश का धार्मिक महत्व भी है।