गणेश पांडे :
गणपति बप्पा मोरया की धुन एक बार फिर गूंजने लगी है। जगह-जगह आकर्षक पंडाल सजे हैं। कुमाऊं का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी में तो हर तरफ पंडाल ही पंडाल हैं। मानो एक तरह से देखा-देखी का चलन चल पड़ा है। दो वर्ष पहले मैंने पड़ताल करते हुए पाया था कि हल्द्वानी में गणेश महोत्सव मनाने की परंपरा की शुरुआत करीब 12 साल पहले 2004 में हुई। यह परंपरा इतनी तेजी से फैली कि चौदह साल में 35 से 40 जगहों पर सार्वजनिक आयोजन होने लगे। घरों व दो-तीन परिवारों के बीच होने वाले आयोजन गिनती में शामिल नहीं हैं। इन्हें शामिल किया जाए तो संख्या सैकड़े से ऊपर पहुंचती है।
दरअसल, बात महोत्सव के विस्तार की नहीं है, बल्कि गणेश महोत्सव, दुर्गा महोत्सव जैसे धार्मिक आयोजनों में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से निर्मित मूर्तियों का बढ़ता चलन और मूर्तियों को आकर्षक रूप देने के लिए जहरीले कैमिकल का प्रयोग चिंता पैदा करने वाला है। आस्था से जुड़ा मामला होने से लोग इस पर बात करने से कतराते रहते हैं।
हमारे धर्म, शास्त्रों से हमें मूर्ति पूजन की परंपरा का ज्ञान होता है। मूर्ति पूजन की परंपरा कैसी हो, इसका ज्ञान भी शास्त्र हमें कराते हैं, लेकिन प्रतिस्पर्धा और सब कुछ रेडीमेड चाहने के दौर में इस पहलू को हम भुलते जा रहे हैं। पीओपी और कैमिकल युक्त मूर्ति पूजन की परंपरा जो आज चल पड़ी है, उसे शास्त्र सम्मत नहीं कहा जा सकता। दरअसल, हिंदू शास्त्रों में मिट्टी की प्रतिमा का पूजन करने के तमाम संदर्भ मिलते हैं। मिट्टी की प्रतिमा का पूजन इसलिए भी सर्वश्रेष्ठ और शुभ माना जाता है क्योंकि मिट्टी पवित्र होती है। मिट्टी में अग्नि, वायु, जल, आकाश व पृथ्वी जैसे पंच तत्व विद्यमान रहते हैं।
पीओपी से निर्मित मूर्तियों का पूजन शास्त्र सम्मत क्यों नहीं है अब इस पर बात। ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेश खंड में उल्लेख है कि माता पार्वती ने मिट्टी की गणेश प्रतिमा बनाकर उसका प्राकट्य किया था। भगवती गौरी मिट्टी से बने बालक का विग्रह बनाकर प्राण तत्व का आह्वान करती हैं। जिस तरह पूजा-पाठ और धार्मिक आयोजनों में चमड़ा, एल्युमीनियम आदि का उपयोग वर्जित माना गया है, इसी तरह प्लास्टर ऑफ पेरिस को भी शास्त्र सम्मत नहीं माना जा सकता।
अब बात पीओपी से बनी प्रतिमा के नुकसान पर। पीओपी से निर्मित मूर्तियों पर रसायनिक कलर किए जाते हैं, जो पानी को जहरीला बना देते हैं। जिससे कई तरह के चर्म रोग और अन्य घातक बीमारियां होने का खतरा रहता है। जिस नदी, तालाब में मूर्तियों को प्रवाहित किया जाता है, उसमें रहने वाली मछली आदि जलीय जंतुओं के जीवन को भी इससे खतरा उत्पन्न हो जाता है।
अब व्यवहारिक पहलू पर बात करते हैं। पीओपी से निर्मित मूर्तियों को सांचे से बनाया जाता है। जिससे इनकी फिनिशिंग अच्छी आती है और चमकदार कलर करने से शाइनिंग भी अच्छी मिलती है। अंदर से खोखली होने से मिट्टी की मूर्ति की अपेक्षा पीओपी निर्मित मूर्तियां थोड़ी हल्की होती है। अब सवाल है कि क्या अच्छी शाइनिंग व फिनिशिंग मात्र के लिए प्रकृति और शास्त्रों से खिलवाड़ किया जाए। वह भी तब जब हमारे शास्त्र प्रकृति पूजन का संदेश देते हैं। फिर भगवान गणेश तो प्रतीक के रूप में पूजे जाते हैं। विभिन्न धार्मिक अवसरों पर मिट्टी व गाय के गोबर से गणेशजी की स्थापना होती है। दूब के तिनके मात्र से प्रसन्न होने वाले भगवान गणेश के लिए ऊंची और आकर्षक मूर्तियों का भला कोई औचित्य भी है।
गणपति बप्पा मोरया की धुन एक बार फिर गूंजने लगी है। जगह-जगह आकर्षक पंडाल सजे हैं। कुमाऊं का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी में तो हर तरफ पंडाल ही पंडाल हैं। मानो एक तरह से देखा-देखी का चलन चल पड़ा है। दो वर्ष पहले मैंने पड़ताल करते हुए पाया था कि हल्द्वानी में गणेश महोत्सव मनाने की परंपरा की शुरुआत करीब 12 साल पहले 2004 में हुई। यह परंपरा इतनी तेजी से फैली कि चौदह साल में 35 से 40 जगहों पर सार्वजनिक आयोजन होने लगे। घरों व दो-तीन परिवारों के बीच होने वाले आयोजन गिनती में शामिल नहीं हैं। इन्हें शामिल किया जाए तो संख्या सैकड़े से ऊपर पहुंचती है।
दरअसल, बात महोत्सव के विस्तार की नहीं है, बल्कि गणेश महोत्सव, दुर्गा महोत्सव जैसे धार्मिक आयोजनों में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से निर्मित मूर्तियों का बढ़ता चलन और मूर्तियों को आकर्षक रूप देने के लिए जहरीले कैमिकल का प्रयोग चिंता पैदा करने वाला है। आस्था से जुड़ा मामला होने से लोग इस पर बात करने से कतराते रहते हैं।
हमारे धर्म, शास्त्रों से हमें मूर्ति पूजन की परंपरा का ज्ञान होता है। मूर्ति पूजन की परंपरा कैसी हो, इसका ज्ञान भी शास्त्र हमें कराते हैं, लेकिन प्रतिस्पर्धा और सब कुछ रेडीमेड चाहने के दौर में इस पहलू को हम भुलते जा रहे हैं। पीओपी और कैमिकल युक्त मूर्ति पूजन की परंपरा जो आज चल पड़ी है, उसे शास्त्र सम्मत नहीं कहा जा सकता। दरअसल, हिंदू शास्त्रों में मिट्टी की प्रतिमा का पूजन करने के तमाम संदर्भ मिलते हैं। मिट्टी की प्रतिमा का पूजन इसलिए भी सर्वश्रेष्ठ और शुभ माना जाता है क्योंकि मिट्टी पवित्र होती है। मिट्टी में अग्नि, वायु, जल, आकाश व पृथ्वी जैसे पंच तत्व विद्यमान रहते हैं।
पीओपी से निर्मित मूर्तियों का पूजन शास्त्र सम्मत क्यों नहीं है अब इस पर बात। ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेश खंड में उल्लेख है कि माता पार्वती ने मिट्टी की गणेश प्रतिमा बनाकर उसका प्राकट्य किया था। भगवती गौरी मिट्टी से बने बालक का विग्रह बनाकर प्राण तत्व का आह्वान करती हैं। जिस तरह पूजा-पाठ और धार्मिक आयोजनों में चमड़ा, एल्युमीनियम आदि का उपयोग वर्जित माना गया है, इसी तरह प्लास्टर ऑफ पेरिस को भी शास्त्र सम्मत नहीं माना जा सकता।
अब बात पीओपी से बनी प्रतिमा के नुकसान पर। पीओपी से निर्मित मूर्तियों पर रसायनिक कलर किए जाते हैं, जो पानी को जहरीला बना देते हैं। जिससे कई तरह के चर्म रोग और अन्य घातक बीमारियां होने का खतरा रहता है। जिस नदी, तालाब में मूर्तियों को प्रवाहित किया जाता है, उसमें रहने वाली मछली आदि जलीय जंतुओं के जीवन को भी इससे खतरा उत्पन्न हो जाता है।
अब व्यवहारिक पहलू पर बात करते हैं। पीओपी से निर्मित मूर्तियों को सांचे से बनाया जाता है। जिससे इनकी फिनिशिंग अच्छी आती है और चमकदार कलर करने से शाइनिंग भी अच्छी मिलती है। अंदर से खोखली होने से मिट्टी की मूर्ति की अपेक्षा पीओपी निर्मित मूर्तियां थोड़ी हल्की होती है। अब सवाल है कि क्या अच्छी शाइनिंग व फिनिशिंग मात्र के लिए प्रकृति और शास्त्रों से खिलवाड़ किया जाए। वह भी तब जब हमारे शास्त्र प्रकृति पूजन का संदेश देते हैं। फिर भगवान गणेश तो प्रतीक के रूप में पूजे जाते हैं। विभिन्न धार्मिक अवसरों पर मिट्टी व गाय के गोबर से गणेशजी की स्थापना होती है। दूब के तिनके मात्र से प्रसन्न होने वाले भगवान गणेश के लिए ऊंची और आकर्षक मूर्तियों का भला कोई औचित्य भी है।
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