Monday, 9 April 2018

पिछौड़ा : हमारा गौरव ही नहीं, पहचान भी

पिछौड़ा..। एक ऐसा शब्द जो जहन में आता है तो ओढऩी सरीके एहसास कराता है और अगर आंखों के सामने आ आए तो कुमाऊंनी महिलाओं की पारंपरिक परिधानों की संपूर्णता का दीदार करा देता है। परंपरागत रूप से कुमाऊं अंचल की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा पिछौड़ा आज के बाजारवाद में भी हमारी संस्कृति में रचा-बसा है। समय के साथ पिछौड़े भले ही आकर्षक और डिजाइनदार हो गया हो, लेकिन गौरवांवित होने वाली बात यह है कि रंगवाली पिछौड़ा हमारी संस्कृति से अलग नहीं हुआ। कुमाऊं अंचल के साथ सुदूर शहरों और सात समंदर पार बस गए प्रवासी महिलाए भी विभिन्न शुभ अवसरों पर पिछौड़ा जरूर पहनती हैं।



पिछौड़ा का महत्व और प्रयोग

कुमाऊं में दुल्हन के लिए पिछौड़ा उतना ही महत्व रखता है, जितना पंजाबियों के लिए फुलकारी और हैदराबादी महिलाओं के लिए दुपट्टा। पिछौड़ा शादीशुदा महिला के सुहाग का प्रतीक है। रंगा होने के कारण इसे रंगवाली पिछौड़ा कहा जाता है। परंपरा के अनुसार उत्सव, सामाजिक समारोह व धार्मिक अवसरों पर पहना जाता है। विवाह में कन्या को दी जाने वाली ड्रेस में पिछौड़ा भी शामिल रहता है। विवाह, नामकरण संस्कार, त्योहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर महिलाएं पिछौड़ा पहनती (ओढ़ती) हैं। घर-परिवार में कोई मांगलिक कार्यक्रम हो तो पिछौड़ा पहने महिलाओं को देख सहज ही अंदाजा हो जाता है कि यह समारोह वाले परिवार से हैं।

संपूर्णता का है प्रतीक

संस्कृति कर्मी जुगल किशोर पेटशाली के अनुसार पिछौड़ा संपूर्णता का प्रतीक है। प्रतीकात्मक रूप में लाल रंग वैवाहिक जीवन की संयुक्तता, स्वास्थ्य तथा संपन्नता का प्रतीक है, जबकि सुनहरा पीला रंग भौतिक जगत से जुड़ाव दर्शाता है।


हाथों से बनाने की थी परंपरा

आज भले ही बाजार में आकर्षक डिजाइन और ऊंची कीमत वाले पिछौड़ा आसानी से उपलब्ध हैं। लेकिन करीब चार दशक पहले तक कॉटन वाइल या हल्के सूती फैब्रिक को रंगकर घर पर ही पिछौड़ा तैयार किया जाता था। करीब तीन मीटर लंबे व सवा मीटर चौड़े सफेद कपड़ा लेकर उसे गहरे पीले रंग में रंगा जाता था। तब सिंथेटिक रंगों का प्रचलन नहीं था। हल्दी या किलमोड़ा (कांटे युक्त जंगली झाड़ी) की जड़ को कूटकर पीला रंग तैयार कर कपड़े को रंगा जाता। हल्दी को कूटकर उसमें नीबू व सुहागा मिलाकर लाल रंग तैयार होता। कपड़े के बीच में स्वास्तिक और चारों कोनों पर सूर्य, चंद्रमा, शंख, घंटी आदि बनाए जाते। सिक्के पर कपड़ा लपेट कर कपड़े पर लाल-लाल गोले बनते है। अब परंपरा निभाने को मंदिर के लिए कपड़े के टुकड़े पर शगुन कर लिया जाता है। 

फोटो सोर्स : स्टोरी में शामिल सभी फोटो गूगल सर्च से उठाई गई हैं। 

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