Saturday, 18 November 2017

जोहार : अद्भुत आभूषण, अलहदा पोशाक


गणेश पांडे
हर समाज की संस्कृति उसके लिए बेहद खास होती है। कुमाऊंनी संस्कृति में अलावा यहां जोहार की संस्कृति का भी अपना अलग अंदाज है। यहां के लोग विशेष तरह की पोशाक पहनने के लिए बिलकुल अलग तरह के आभूषणों को धारण करते हैं।
जोहार की पारंपरिक वेशभूषा में सजी महिलाएं
 उत्तराखंड की संस्कृति में शौका समाज का अपना स्थान रहा है। सीमांत पिथौरागढ़ जिले के जोहार-मुनस्यारी क्षेत्र में निवास करने वाला शौका समाज की अपनी विशिष्ट पहचान रही है। भले ही वह पहनावे को लेकर हो, या फिर खान-पान। शौका समाज की वेशभूषा अलग ही पहचानी जाती है। खास कर महिलाएं विशेष तरह के वस्त्र, आभूषण आदि धारण करती हैं। उच्च हिमालयी की गोरी गंगा घाटी में रहने वाले शौका समाज की महिलाएं सामूहिक आयोजन में आज भी जब अपनी पारंपरिक वेशभूषा में होती हैं, सहज ही दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींच लेती हैं।
आभूषणों का उपयोग हर समाज आदि काल से करता आया है। ज्यार-मुनस्यार (क्षेत्रीय बोली के शब्द) की बोली में आभूषण या जेवरात को 'हत-कान'  कहा जाता है। शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसका आशय हाथ व कान में पहने जाने वाले शोभायमान वस्तुओं से है। हालांकि इसका ये मतलब नहीं कि केवल हाथ-कान में ही जेवर पहने जाते थे। शौका समाज में उपयोग होने वाले आभूषण ही नहीं पुराने समय में दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुएं, काष्ट-धातु से निर्मित रसोई के बर्तन आदि भी विशिष्ट हैं। खास बात ये है कि अतीत की याद दिलाती ये वस्तुएं बदलते समय के साथ शनै: शनै: लुप्त होती जा रही हैं। आज की पीढ़ी ऐसी वस्तुओं के नाम और उनके उपयोग से अंजान होते जा रही है। यद्यपि वर्तमान समय में इन वस्तुओं का न तो उपयोग होता है और न विशेष महत्व ही रह गया है। शौका समाज पर अध्ययन करने वाले स्व. डॉ. शेर सिंह पांगती अपनी किताब 'वास्तुकला के विविध आयाम' में लिखते हैं, अपनी लोक संस्कृति व सुनहरे अतीत को सहेजना और भावी पीढ़ी को उससे अवगत कराना व्यक्ति का दायित्व बनता है। 

जोहार की पारंपरिक वेशभूषा


ऐसे शुरू हुई जेवर धारण की परंपरा 

आभूषणों की परंपरा शारीरिक शोभा बढ़ाने मात्र के लिए नहीं हुई। इतिहासकार डॉ. शेर सिंह पांगती के अनुसार आभूषणों का प्रारंभिक उपयोग मूल्यवान वस्तुओं जैसे सोना-चांदी के विभिन्न प्रकार के रत्नों को पारिवारिक आय की जमा पूंजी के रूप में सुरक्षित रखने के लिए शरीर में धारण करने से हुआ, ताकि इनके खो जाने अथवा चोरी हो जाने की संभावना न रहे। डॉ. पांगती लिखते हैं पौराणिक युग में बच्चे घरों को सुरक्षित रखने के लिए ताले उपलब्ध नहीं थे और न बैंक व लॉकर की व्यवस्था थी। अत: इसे शरीर पर धारण करके ही सुरक्षित रख पाना संभव था। परिवार की स्त्रियां घर से बाहर कम निकलती थी, इसलिए उनको उसका जिम्मा सौंपा गया। धीरे-धीरे अपनी संपत्ति व वैभव को समाज के समक्ष प्रदर्शन करने की परंपरा के चलते मूल्यवान धातुओं को सुंदर रूप देकर आभूषण के रूप में धारण करने का चलन हुआ।

सुरक्षा कवच संबंधी आभूषण

 शौका समाज में जीवन में उपयोगी वस्तुओं को आभूषण रूप में धारण करने की अनिवार्यता थी। जोहार की महिलाएं कलाई में बड़े आकार की चांदी की चूड़ी धारण करती थी। डॉ. शेर सिंह पांगती अपने किताब में उल्लेख किया है कि आभूषण के आकार व मोटाई से पता चलता है कि इसका उपयोग सुरक्षा कवच के दृष्टिकोण से होता होगा। सामाजिक परंपरा में पुरुषों के घरों से दूर जाने की मजबूरी में नारियों को संभावित खतरों से संघर्ष करने के लिए कलाई में कवच पहनना अनिवार्य होता होगा। इसी तरह पांव में पैजामा (मोटे आकार की चांदी की पट्टी) और कम उम्र की लड़कियां पांव में चांदी का खोखला (गोलाकार छल्ला) पहनती हैं। पैजामा का मूल आकार पांव के कवच रूप में माना जाता है। कालांतर में आभूषण का स्वरूप देने के लिए आकार छोटा कर दिया गया।


ये भी हैं विशेष

 जोहार की महिलाओं में स्यू-सांगल, अतरदान और चिम्ट-कनकुडि़ आदि तीन आभूषणों को (संयुक्त गुच्छे को छ्यामटांग कहा जाता है) चांदी की चेन या मोटे धागे से दाएं कंधे पर लटकाने की पंरपरा रही है। छ्यामटांग विलुप्त जोहारी-खुन (बोली) का शब्द है। छ्यामटांग के साथ रंग-बिरंगी कपड़ों के टुकड़ों को सुंदर आकार देकर छोटा बटुवा (पर्स) भी लटकाया जाता था। स्यू-सांगल के अंत में नर कस्तूरी के लंबे दांतों को चांदी के मूठ के माध्यम से जोड़कर उसके साथ सुअर के बालों का गुच्छा भी होता था, जिसे सुंर्याल कहते थे। इनका प्रयोग कदाचित नजर उतारने, तंत्र-मंत्र अथवा घरेलू उपचार में होता था। चिम्ट-कनकुडि़ में रोजमर्रा के तीन उपयोग, शरीर में चुभे कांटे को निकालने के लिए चिमटी, काम का मैल निकालने के लिए कनकुडि़ व दांत में फंसे भोजन के टुकड़े निकालने के लिए दांत खोंच (टूथ-पिक) का गुच्छा होता था। सवा इंच चौड़े चांदी के चेन के अंत में चांदी की छोटी डिबिया होती, जो अतरदान कहलाता। डॉ. पांगती लिखते हैं इत्र रखने का यह आभूषण अपभ्रंष में अतरदान कहलाया।

व्यापार से आयातित जेवर

 नथ, चरेऊ, झुपिया, पचमुनिया, चंद्रहार, पौंची, धागुला, पुलिया आदि आभूषण आमतौर पर पूरे उत्तराखंड में पहने जाते हैं। लेकिन पैजामा, चूड़ी और छ्यामटांग की तीन लडिय़ां जोहार के विशिष्ट आभूषण रहे हैं। इनका ऐतिहासिक महत्व इंगित करता है कि जोहार की नारियां, पुरुषों की व्यावसायिक भ्रमण के कारण उनकी अनुपस्थिति में आतताइयों ने संघर्ष करने के लिए तत्पर रहती थीं। डॉ. पांगती ने लिखा है कि मल्ला जोहार में खेत की जुताई करते समय किसी अज्ञात पदार्थ से बने रंग-बिरंगे चुडिय़ों के टूकड़े उपलब्ध होते हैं। भ्रमणशील व्यवसाय के कारण इस सीमा के क्षेत्र के लोग मैदान या पड़ोसी देश तिब्बत से इनका आयात करते होंगे। चूडिय़ों की कलाकृति और चमकीले रंग को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि स्थानीय लोग इस कला को जानते होंगे।


..और जोहार के गीतों से मिली पहचान

 जोहार की संस्कृति ही नहीं, प्राकृतिक और नैसर्गिक सौंदर्य भी अद्भुत है। खूबसूरत बुग्याल, हरी-भरी धरती, कल-कल बहती नदियां, सफेद चांदी-सा चमचाता हिमालय बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है। यही वजह रही कि यहां के सौंदर्य पर भी भरपूर लिखा गया। यहां तक कि जोहार-मुनस्यार पर गाए गीतों से कई लोक कलाकारों को पहचान दिलाने का काम किया।
लोक गायक पप्पू कार्की ने जोहार पर आधा दर्जन से अधिक गीत गाए हैं। 2011 में पलायन पर आया लोक गीत 'ऐ जा रे चैत-बैसाख मेरो मुनस्यार..' को लोगों ने खूब सराहा। इसके अलावा 'गिरगौं बटी पुजि गैछू कालामुनि मंदिरा..', 'क्या भलो लागैछो साली मिलन-जोहार..', 'ए भुला तू का गैछै छोडि़ आपण मुलुक जोहारा' गीत भी पसंद किए गए। शेरु मर्तोलिया और भाना दरम्याणि की सच्ची प्रेम गाथा पर आधारित लोक गायक प्रह्लाद मेहरा के गीत 'सूपा भरी धाना मेरी भाना दरम्याणि' और 'साली लस्पाली त्वे मिलड़ औलौ साली लस्पा बुग्याला' को भी खासा सराहा गया।


इसी तरह लोक गायक गणेश मर्तोलिया ने 'भल मेरो जोहार, भल मेरो मुनस्यार..', फौजी ललित मोहन जोशी ने 'हमी शौकारा हमर देश ज्वारा..', लोक गायिका माया उपाध्याय ने 'आदू संसार, आदू मुनस्यार..' और जितेंद्र तोमक्याल ने 'हिट शहरी म्यार जोहार-मुनस्यारा..' गीत से जोहार के सौंदर्य का वर्णन किया। अब भी इन पर कई गीत बन रहे हैं।


Monday, 9 October 2017

पल में बिखर गया सात सालों का ख्वाब

ये कहानी अकेले मनमोहन की नहीं हैं, पहाड़ों में सैकड़ों-हजारों मनमोहन पड़े हैं। 17 से 21 वर्ष की आयु तक सेना भर्ती के लिए धक्के खाने वाले ये युवा जिंदगीभर अच्छे रोजगार के लिए धक्का खाते हैं। कभी इस शहर तो कभी उस शहर..
मनमोहन पांडे

बागेश्वर जिले के बिलौना गांव निवासी मनमोहन पांडे के पिता नारायण दत्त पांडे पंडिताई का काम करते हैं। पंडिताई से आने वाली छोटी-मोटी दक्षिणा से घर का खर्च और दो बच्चों की पढ़ाई मुमकिन नहीं थी। लिहाजा मनमोहन ने 2012 में इंटरमीडिएट पास करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी और सेना भर्ती की तैयारी में जुट गया।
मनमोहन के मन में एक ही सपना हिलोरे मारता कि सेना में भर्ती होकर परिवार का सहारा बनेगा। 2010 में जब वह हाईस्कूल में था, तभी से भर्ती की तैयारी में जुट गया था। रविवार को मनमोहन का सपना तब टूट गया, जब चेस्ट एक सेमी कम होने से उसे भर्ती से बाहर होना पड़ा। मनमोहन ने बताया कि जिस सपने को साकार
सेना भर्ती में दौड़ते युवा।
करने के लिए पिछले 7 साल से दिन-रात लगा था, वह एक पल में बिखर गया। जेब खर्च के लिए डिश टीवी का काम करने वाले मनमोहन ने बताया कि अब तक चार भर्तियों में शामिल हो चुका है। हर जगह चेस्ट में मात खा गया। यह कहते हुए मनमोहन की आंखें भर आई। बोला, अब तो उम्र भी नहीं बची कि फिर एक कोशिश कर सकूं। मनमोहन की तरह दफौट गांव का कमल दफौटी की चेस्ट भी तय मानकों से 2 सेमी कम निकली। अब तक तीन भर्तियों में दफौटी ने दौड़ एक्सीलेंट निकाली है। वहीं, गौबाड़ी गांव के हेमंत कुमार ने दौड़ एक्सीलेंट निकाल ली, लेकिन बाद में लंबाई नापने में एक सेमी छोटे पड़ गए। दोनों ने कहा अगली भर्ती की तैयारी करेंगे।
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भेड़ों सरीके हांके जाते हैं युवा : सेना भर्ती को पहुंचे युवाओं को आर्मी के जवान, पुलिस कर्मी ऐसे हांकते हैं, जैसे चरवाहा भेड़ों का झुंड हांकता है। हमारे पहाड़ों की ये बिडंबना रही है कि यहां के युवाओं के लिए सेना ही एकमात्र विकल्प बचता है। पर स्थितियां ऐसी हैं कि भर्ती में दौडऩे वाले पांच से 10 फीसद युवाओं का ख्वाब ही पूरा हो पाता है। हल्द्वानी में इन दिनों जो नजारा है वो बेरोजगारी की भयावहता को बयां करने के लिए काफी है।
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युवाओं काे काबू करता पुलिसकर्मी।
एक गांव से 32 युवा, एक ने निकाली दौड़ : बागेेश्वर जिले के चेताबगड़ गांव से 32 युवा सेना भर्ती के लिए हल्द्वानी पहुंचे थे। हैरत की बात यह रही कि इनमें से केवल एक ही युवक ने दौड़ पूरी की। हालांकि चेस्ट कम होने से बाद में उसे भी बाहर होना पड़ा। गांव के राजेंद्र सिंह कोश्यारी ने बताया कि वो और उनके कुछ साथी हाइट में बाहर हो गए। वहीं, दौड़ निकालने में असफल रहे देवेंद्र सिंह कोश्यारी व रमेश सिंह ने कहा कि ट्रेक थोड़ा मुश्किल है। इससे युवाओं को परेशानी हो रही है।
-गणेश पांडे 

Wednesday, 19 July 2017

मेरी डायरी का एक पन्ना-योगी चौराहे

मैं कल अपने पाँच साल के बेटे काव्य को टीका लगवाने के लिए डॉक्टर के यहाँ जा रहा था। हम दोनों बाइक पे थे। आदतन वह पूरे रास्ते सवाल पूछता रहता है। आज वह सवाल नहीं पूछ रहा था। क्योंकि जाने कैसे उसे यह भान हो गया था कि जो रास्ता हमने चुना है वह डॉक्टर की तरफ जाता है। डॉक्टर के यहा जाने का मतलब उसके लिए टीका लगना ही होता है। इसलिए वह अपनी सहज जिज्ञासाओं को दबा या स्थगित कर के उन युक्तियों को सोच रहा था और एक-एक करके आजमा भी रहा था, जिससे डॉक्टर से छुटकारा मिल जाए। हम भी बाप ठहरे और लगातार आश्वासन दिए जा रहे थे कि आपको टीका तो बिलकुल नहीं लगेगा। हमने अपनी मुश्किल डॉक्टर पे डाल दी।
खैर, डॉक्टर के गए, टीका भी लगा, रोना-चिल्लाना, प्यारना-पुचकारना भी हुआ। बहरहाल हम वापस लौट रहे थे। चौराहे की बत्ती जो दूर से उल्टी गिनती गिनते हुए दिखाई दे रही थी, 3... 2... 1... तक पहुँचते - पहुँचते लाल हुई। हमने ब्रेक दबाए और रुक गए। बत्ती का दुबारा से हरे होने का इंतज़ार करने लगे, फिर से एक उल्टी गिनती के साथ। दूसरी तरफ के यातायात का हाल कुछ ऐसा था - मानो किसी ने सांस को प्राणायाम की तरह प्रयास से रोक रखा था और अगर अब न भी छोड़ते तो अपने आप छूट जाता। लगभग कपालभांति की तरह झटके से चौराहे ने ट्राफिक को फूँक दिया। कई बार ये चौराहे मुझे किसी योगी की तरह लगते हैं जो एक नाक से सांस को भर कर रोक रहे हैं और दूसरी तरफ से छोड़ रहे हैं। लेकिन लाख प्रयास से योग साधता नहीं।
टीके से उपजी नाराजगी की वजह से बाप बेटे में अभी तक अस्थाई रूप से बातचीत बंद थी। आखिर जिज्ञासा ने अबोले को तोड़ा और उसने सवाल किया, पापा, हम यहाँ रुक क्यो गए हैं?
इस सवाल ने अब पिता के अंदर एक शिक्षक को जगा दिया और शिक्षक ने मौका ताड़ लिया ट्राफिक रूल सिखाने का। मैंने कहा, जब सिग्नल लाल होता है तो हम रुक जाते हैं
हम क्यों रुक जाते हैं?
ताकि दूसरी तरफ के लोग आसानी से निकाल सकें।
अब हम कब चलेंगे?
जब सिग्नल ग्रीन होगा तब...
ग्रीन कब होगा?
जब बैकवर्ड काउंटिंग खत्म होगी।
मेरी ज्ञान-गीता चल रही थी। उल्टी घड़ी ने लगभग आधा ही फासला तय किया होगा। पीछे से एक फर्राटा बाइक आकर थोड़ी धीमी हुई। हॉर्न से पार निकल जाने के इरादे साफ जाहिर किए। हॉर्न की आवृति और उतार चढ़ाव की तत्परता में देश की तरक्की के ग्राफ के साथ आगे बढ़ जाने के इरादे साफ दिखाई दे रहे थे। आगे आकार बाइक पर आरूढ़ नौजवान ने दाएँ देखा यह इतमीनान करने के लिए कि कोई पुलिस वाला तो नहीं खड़ा है। दायीं ओर से तसल्ली हो गई कि इधर तरक्की में रुकावट नहीं खड़ी है। फिर बायीं ओर देखना जरूरी था, तरक्की में बाधाएँ दूसरी तरफ भी हो सकती हैं। बाईं और एक स्कूटी खड़ी थी और स्कूटी पर दो लड़कियां। बाइक सवार ने विकास के पहले मॉडल में तुरंत अपना अविश्वास सा प्रकट करते हुए अपनी बाइक को एक तरफ विराम दिया। देश की तरक्की की नई परिभाषा गढ़ी। इंजन को बंद करके नियम पालन में आस्था प्रकट की और अपनी बाइक के मिरर को स्कूटी पर फोकस करके संवैधानिक तौर तरीकों को अपनाना उचित समझा।
तरक्कीपसंदों की कमी कहीं भी नहीं होती है। पीछे से 'धूमÓ टाइप की दो-चार फटफटिया और आईं, आते ही सर्र से निकल गईं। निकलते ही लोगों को जागा गई कि कुछ भी हो तरक्की की असली पहचान जल्दी से आगे निकल जाना ही है। बाकी के वाहनों ने भी तरक्की के इसी मॉडल में ही अपनी बेहतरी समझी, उनमें जुंबिश हुई। काफिला आगे निकाल पड़ा। लाल बत्ती अभी भी सांस थामे हुए खड़ी थी। तभी बेटे सवाल किया-
अभी तो ग्रीन लाइट भी नहीं हुई फिर सब क्यूँ जा रहे हैं।
मेरे ज्ञान की गठरी में छेड़ हो चुका था। चौराहे पे जो मैंने पाठशाला खड़ी की थी वह ताश के पत्तों की मानिंद ढह गई थी। मेरे भीतर का अध्यापक छुट्टी ले चुका था। पिता का अक्स फिर उभर आया था। वाहनों के समुंदर का हिस्सा बनना ही बुद्धिमानी समझ पिता आगे बढ़ा। बेटा इस बार लगभग चिल्ला के बोला-
हम आगे क्यूँ जा रहे है, सिग्नल अभी ग्रीन नहीं हुआ है?
कुछ कहने सुनने को बाकी नहीं था। कहता भी क्या, कोई भी शब्द अब असरदार नहीं लग रहा था, वजनदार नहीं लग रहा था। जो मैंने सिखाना चाहा वह तो मालूम नहीं लेकिन इतना तो जरूर है कि कुछ न कुछ सीखना तो जरूर हुआ है। क्योंकि हर घटना से बच्चे कोई सीख तो गढ़ ही लेते हैं। वह क्या है- नियम पालन के लिए नागरिकता का कोरा किताबी पाठ, तेज़ रफ्तार का पागलपन, एक पिता की कथनी और करनी का दोहरापन? या कुछ और ?
इन ट्राफिक सिगनल्स पर यूं तो मिनट आधा-एक मिनट का विराम होता है लेकिन इन वकफ़ों में ही बहुत से मासूमों के मन में बहुत सारी अवधारणाएँ बनती मिटती हैं। और कुछ पत्थर पे स्थायी इबारत की तरह भी लिख जाती हैं।

(दलीप वैरागी के कथोपकथन ब्लॉग से- मो. 09928986983)

Monday, 17 July 2017

जागेश्वर : महामृत्युंजय रूप में पूजे जाते हैं भगवान शिव


जागेश्वर धाम का मनोहारी दृश्य।
दर्शन श्री महामृत्युंजय।
अल्मोड़ा जिले में जागेश्वर धाम और द्वाराहाट में महामृत्युंजय मंदिर आस्था का प्रमुख केंद्र हैं। कत्यूरी वंश में निर्मित जागेश्वर धाम के महामृत्युंजय मंदिर का वर्णन शिवपुराण, स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि ग्रंथों में मिलता है।
नागर शैली में निर्मित जागेश्वर के महामृत्युंजय मंदिर में श्रद्धालु अकाल मृत्यु को टालने और दीर्घायु के लिए महामृत्युंजय पाठ और यज्ञ करते हैं। मान्यता है कि महामृत्युंजय मंदिर में पूजा से मनुष्य के दैहिक, दैविक और भौतिक दु:ख दूर होते हैं। अल्प मृत्यु, काल सर्प दोष निवारण, रोग-शोक और शत्रु भय से बचने के लिए श्रद्धालु पूरे वर्ष यहां पूजा-अर्चना को आते हैं। जागेश्वर के महामृत्युंजय मंदिर को जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने यहां आकर मंदिर की मान्यता को पुनस्र्थापित किया था।
वहीं, द्वाराहाट का मृत्युंजय मंदिर नागर शिखर शैली में निर्मित है। पूर्वाभिमुखी यह मंदिर त्रिरथ योजना से बनाया गया है। पुरातत्व विभाग इस मंदिर को 11वीं से 12वीं शताब्दी का मानता है। लोक मान्यता के अनुसार मृत्यु से भयभीत मनुष्य को अभयदान प्रदान करने वाले भगवान शिव भक्तों की सच्चे मन से मांगी मुराद पूरी करते हैं। 

श्रावण में लगता है आस्था को मेला

जागेश्वर धाम में श्रावणी मेले का दृश्य।
जागेश्वर धाम में श्रावण में पूरे महीने मेला लगता है। श्रावण के सोमवार को यहां पाव धरने की जगह नहीं मिलती। जागेश्वर महामृत्युंजय मंदिर में श्रावण मास की चतुर्दशी और महाशिवरात्रि को की गई पूजा का विशेष महत्व माना गया है। महाशिवरात्रि और श्रावण चतुर्दशी को महिलाएं संतान प्राप्ति के लिए दीपक अनुष्ठान का कठिन संकल्प लेती हैं। महिलाएं पूरी रात दीपक हाथ में लेकर तपस्या करती हैं।








Saturday, 15 July 2017

हरेले के बहाने: आमा! अब तू नहीं आती, सिर्फ हरेला आता है..


घरों में टोकरियों में बोया गया हरेला।
हरेला आते ही सबसे पहले मुझे आमा याद आती है। 15 साल गुजर गए आमा हमारे बीच नहीं है। हम छोटे से थे। आमा ताऊजी के परिवार के साथ रहती। 95-96 की उम्र में हमें हरेला पूजने आठ-दस भिड़ (खेत) चढ़कर आ जाती। हममें जैसी उसकी जान बसती थी।
सांस चढऩे से हांफते हुए कहतीं- नातियो, बैठ, त्वे हरया्व पूजि दियो। नान् का छै? भिडऩ् न ऊकइन इजा, कि पत् अघिलै छौ-न्हात्यो। तेरि मै हरया्व पुजि गै न? कहते हुए आमा फफक कर रो पड़ती। मैंने हरेले के आशीष वचन पहली बार आमा से ही सुने थे। आमा आशीष तब देती थी, उसका अर्थ आज जाकर समझ पाया हूं। आमा तूने ही तो बताया कि पहला हर्याला गोलज्यू और गंगनाथ ज्यू को चढ़ाया जाता है। और भी बहुत बातें हैं आमा, फिर कभी बतियाऊंगा.. अभी हरेले के आशीष पर आता हूं-

लाग हरिया्व, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये, यो दिन-मास भेटनैं रये, दुब जस पंगुरिए, पाति जस हऊरिए, स्याव जस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, धरती चार चकाव, अगासाक चार उकाव है जये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंगा ज्यू में पांणि छन तक, सिल पिसी भात खाये, जांठ टेकी झाड़ जाए..
टोकरी में हरेला।
अर्थात हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे,  बग्वाल तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीते रहो, जाग्रत रहो, यह शुभ दिन, माह तुम्हारी जिन्दगी में आते रहें, दूब घास की तरह फैलो, पाति की तरह पनपो, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, धरती को चीर ले जाने वाले हल की तहत बलवान बनो, धरती की तरह चौड़े हो जाओ, आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, हिमालय में बर्फ और गंगाजी में पानी रहने तक जीवित रहो। इतनी अधिक उम्र जियो कि भात भी पीस कर खाओ, लाठी टेककर शौच जाने तक की उम्र तक जीओ..
यह वह आशीष वचन हैं, जो कुमाऊं अंचल में हरेले के दिन घर के बड़े सदस्य सात अनाजों की पीली पत्तियों (हरेले के तिनड़ों) को बच्चों, युवाओं के सिर में रखते हुए देते हैं। इन ठेठ कुमाऊंनी आशीष में त्रेता युग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान श्रीराम को दी गईं आकाश की तरह ऊंंचे होने और धरती की तरह चौड़े होनेÓ की आशीष का भाव भी है। घर से दूर रहने वाले परिजन को चि_ी से हरेले के तिनके भेजने का चलन था, सुंदर शहर में रहने वाला व्यक्ति बड़े भाव से इन तिनकों को शिरोधार्य करता। संचार के आज के युग में अब यह गुजरे जमाने की बात हो गया है। 

तीन हरेले मनाने की परंपरा
कुमाऊं में वर्ष में तीन बार, चैत्र माह के प्रथम दिन, श्रावण माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाड़ माह में और आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है। इसी प्रकार नौ दिन बाद चैत्र माह की नवमी, श्रावण माह के प्रथम दिन और दशहरे के दिन काटा जाता है। श्रावण का हरेला शिव को समर्पित माने जाने वाले श्रावण मास की संक्रांति को मनाया जाता है। सूर्यदेव इसी दिन दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं। 

हल्द्वानी के एक स्कूल में हाथों में हरेला लिए बच्चे।
सप्त धान्यों का होता है प्रयोग
हरेले के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत, कौंड़ी, मादिरा, धान और भट्ट आदि के बीज का प्रयोग होता है। घर के भीतर पवित्र जगह में खासकर मंदिर के पास रिंगाल की टोकरियों या लकड़ी के बक्सों में बोया जाता है। जितने बीज लिए जाते हैं उसे उतने ही परतों में बोया जाता है। हरेला बोने के लिए साफ-सुथरी जगह से मिट्टी लाई जाती है। सुबह-शाम पूजा के बाद हरेले में पानी का छिड़काव किया जाता है।

अंधेरे में होता पल्लवित
हरेले की खास बात है कि इसे अंधेरे कोने में रखा जाता है। धूप नहीं मिलने से पौधे पीले तिनकों के रूप में दिखते हैं। पीला रंग परिपक्वता का प्रतीक माना गया है, शायद इसीलिए हरेले को अंधेरे कोने में रखा जाता है। 10वें दिन यानी संक्रांति को इन्हें घर का बुजुर्ग सदस्य या महिला काटती है। घर के मंदिर, गांव के इष्ट के बाद परिवार के सदस्यों को पूजा जाता है। 

प्रकृति और खेती से जुड़ाव
माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। सूर्य की रोशनी के बगैर विपरीत परिस्थितियों में पल्लवित हुआ हरेला संघर्ष में बेहतर पनपने की प्रेरणा देता है। हरेले को अच्छी कृषि उपज, हरियाली, धनधान्य, सुख संपन्नता से भी जोड़ा जाता है। 

पौराणिक मान्यता भी है जुड़ी
हरेले को लेकर पौराणिक मान्यता भी हैं। कहा जाता है कि देवी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था। इसलिए वह अनाज के पौधों यानी हरेले के रूप में गौरा रूप में अवतरित हुईं। हरेले को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस दिन शिव पार्वती की पूजा का प्राविधान है।

हल्द्वानी में हरेले की पूजा करती आमा।
डिकारे पूजन का प्रावधान
हरेले की पहली शाम डिकारे बनाने का प्राविधान है। सामान्यतया लाल मिट्टी से शिव, गौरा और गणेश जी की प्रतीक बनाए जाते हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। कुछ जगह केले के तने, भृंगराज आदि से भी डिकारे बनाने का चलन है। इन्हें वनस्पतियों के प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। शिव सामान्यता नीले तथा गौरा सफेद बनाई जाती हैं। 

मानव को प्रकृति से जोड़ता है हरेला
हरेला जिस जिस टोकरी में बोया जाता है वह धरती का स्वरूप है। हरेला जितना सुंदर होगा, धरती भी उसी तरह हरी-भरी रहेगी। संस्कृति कर्मी और लेखक जुगल किशोर पेटशाली बताते हैं, हरेला अच्छा हो इसी कामना से काटने से पहले अगली शाम उसकी गुड़ाई होती है। तिलक लगाकर पूजा जाता है तो रक्षा तागे से लपेटा (सुरक्षित करना) जाता है। मानव को प्रकृति से जोडऩे की यह अद्भुत परंपरा बुजुर्गों के समय से चली आ रही है। 




Thursday, 15 June 2017

कविता : शहर की तन्हाई

शहर में जब मैं खुद को अकेला पाता
निकल पड़ता गौला के पार
सुदूर पहाड़ी की तरफ
हैड़ाखान रोड तो कभी दोगांव

पहाड़, हरेभरे पेड़, जंगल
गांव जैसी अनुभूति देते
लगता जैसे निकल आया हूं
गांव की धार चढ़कर किसी पहाड़ी पर

जंगल के बीच कहीं खो जाता
गांव के जैसा अनुभव पाता
आसपास नजर दौड़ाकर
पेड़, पत्थर, रास्तों को जीभर निहारता

महिला को घास की घुडली लाता देख
मां और गांव की काकी याद आती
सोचता, कहूं काकी आ गईं घास लेकर
तभी ध्यान टूटता ये तेरा गांव नहीं 'गणेश'
(स्वरचित)

Thursday, 25 May 2017

रीठागाड़ी ज्यू! मुझे बैर-भगनौल कौन सुनाएगा अब..


आपसे एक ही तो मुलाकात हुई थी. दो-चार लोगों के कुमाऊंनी में कविता पाठ करने के बाद आपको मंच पर आमंत्रित किया गया. ‘मैं त कविता पाठ करनै लिजि ऐरछि, लेकिन या सबै लोगोंकि इच्छा छ कि मैं बैर-भगनौल सुणूं’. अपने ही ठेठ अंदाज में आपने ये पंक्तियां कही. बागेश्वर उत्तरायणी मेले का जिक्र आया. आपने बताया कि कितना लगाव था आपको बागेश्वर मेले से. पहले जब उत्तरायणी मेला होता तो बैरियों में जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा छिड़ जाती. एक-दूसरे को अपनी वाकपटूता से हराना होता.


एक बार बामण और अनुसूचित जाति के दो दिग्गज बैरियों में मुकाबला छिड़ गया. बामण ने सपने से बात शुरू करी. दूसरे बैरी को छोटा दिखाने और जलील करने की मंशा से बोला- बेई रात मैंलि स्यूण देखो, मैं भैंस बणि रैछि और म्यार पेट बटिक तू है रोछिए. जवाब में दूसरा बैरी बोला- तुम ठीक कोन लागि रोछा सैपो, बेई रातै यसै स्यूण मैंनि लै देखो. तुम भैंस बड़ि रौछिया और मैं तुमार कचिनि पन चस्यूणा चस्यूण लागि र्रैछि (अर्थात मैं तुम्हारा दूध पी रहा था). और तुम म्यार पुछौड़ा मुणि पन चाटन लागि रौछिया.


दो बैरियों के बीच की ये बहस समझा देती है कि बैर किस तरह की विधा है. साल 2016 में हल्द्वानी के पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच में चल रहे उत्तायणी मेले के दौरान कुमाऊंनी कवि सम्मेलन में आपको पहली बार सुनने और देखने का सौभाग्य मिला. आपकी बात को आगे बढ़ाता हूं। बात बागेश्वर उत्तरायणी में दो बैरियों के बीच की चल रही है. बामण बैरी कह रहा है- हमार पूर्वज ऋषि-मुनी लोग छी. ऋषि मुनी लोग ठुल ठुल चमत्कार कर दिछि. अगस्त मुनिलि एक आचपन में गंगा सुखै देछि. यानी अपनी बढ़ाई में बामण बैरी बहुत कुछ कहे जा रहा था. अब बारी दूसरे बैरी की थी. बोला- हुन्याल त्यार पूर्वज ऋषि मुनी, तुझै कि भैये ऋषि मुनी. रात में एक लोल्टी पाणि पेलै बामूणा, रात भरि मूतड़ै रौलै... लोक गायक चंदन सिंह रीठागाड़ी ने अपने ही खास अंदाज में इसे गाया था. यहां तक पहुंचते-पहुंचते मेरी रुचि बढ़ गई थी. मैंने मोबाइल निकाला और ऑडियो रिकॉडिंग शुरू कर दी.


रीठागाड़ी ज्यू ने बात आगे बढ़ाई. फिर एक किस्सा. एक स्याणि-बैग (पत्नी-पति) छी. बैग जि कौलै स्याणि वीक उल्ट करनेर भै. परेशान पति ने सोचा इससे पीछा कैसे छूटता है. बागेश्वर उत्तरायणी मेले चला था. पति ने कहा- ‘सुणछै भागि! आलिबेर ठंड बहुत हैरो, उत्तराणि न जाना’. पति ने सोचा जाते हैं कहता हूं तो ये मना कर देगी, इसलिए उल्टा बोलता हूं। खैर, जवाब में पत्नी बोलीं, ‘तुमनि न जाड़ छै त न जाओ, मैं त जौन’. पत्नी उत्तरायणी को चल दी, पीछे पीछे चुपके से पति भी बागेश्वर पहुंच गया. दोनों सरयू किनारे पहुंच गए. पति बोला- ‘सुणछै भागि, ठंड बहुत छ, गङ न नाना’. ‘हाई तुम न नानात जन नाया, मैंतै नाणै ऊपर या ऐरी, मैं जरूर नान’ पत्नी यह कहते हुए सरयू में उतर गई. पति फिर से बोला- ‘भागी! आलिबेर गंङ बहुत छ, बीच गंङ में जन जाए, किनारै में नाए’. पत्नी का जवाब था- ‘किनार में नाड़छ त तुम नाओ, मैं त बीच गंङ में नान’ कहकर पत्नी बीच नदी की तरफ बढ़ गई।

तभी नदी के तेज बहाव में पत्नी बहने लगी. आदमी ने सोचा आज इससे मुक्ति मिल गई. तभी महिला के हाथ एक पेड़ का हांग (शाखा) आ गया. पति ने सोचा यह और बच जाती है. एक और चाल चली. ‘भागी! हांग छाड़िये जन, मैं औनी’ पति के ये कहते ही पत्नी ने हाथ आई शाख छोड़ दी और नदी के तेज बहाव में बह गई. 
तब आदमी नदी में ऊपर की ओर चलने लगा. आगे एक व्यक्ति मिला तो पत्नी खो चुका आदमी बोला. ‘भाई मेरि स्याणि देखै कि कति, सरयू में बगि गै’. आदमी चौकते हुए बोला- ‘स्याणि सरयू में बगि गैछ त उनकैहि देखणि चैछि, ऊपकै काहि ढुनण लागि रैछा’ पति का बैर गाते हुए जवाब था- ‘ उल्टी स्याणि छी भाई, कि पत्तै उपकै बगी गैछि’


लोक गायक और बैर-भगनौल समेत तमाम विधाओं के पुरोधा चंदन सिंह रीठागाड़ी ने पहली मुलाकात में ही मुझे मुरीद बना दिया था. कार्यक्रम खत्म होने के बाद रीठागाड़ी जी से मिला और उनका फोन नंबर लिया. हालांकि फोन पर एक ही बार बात हो पाई। उनकी ये रिकॉडिंग हाल तक मेरे मोबाइल में थी. मैं इसे कई बार सुनता, घर जाने पर इजा को भी सुनाया करता. पिछले दिनों मोबाइल हैंग कर रहा था, कई चीजे हटा दी. अभी तो रीठागाड़ी जी से कई बार मिलना होगा. बहुत सारी बातें होंगी. बैर-भगनौल और न्योली-छपेली को समझने का मौका मिलेगा. फिर अच्छी रिकॉडिंग कर लूंगा, यही सोचकर मैंने रीठागाड़ी जी की एकलौती रिकॉडिंग को डिलिट कर दिया. 

पिछले दिनों चंदन सिंह रीठागाड़ी जी के मरने की खबर आई तो मैं हिल गया. उनसे एकमात्र मुलाकात याद आ गई और याद आ गई वो रिकॉडिंग भी. मोबाइल में खोजा तो रिकॉडिंग नहीं. फिर याद आया कि अभी पिछले दिनों ही तो मैंने मोबाइल साफ किया था. मुझे रोना आ गया. अब क्या बचा मेरे पास. न रीठागाड़ी रहे, न रिकॉडिंग. अपने मन को कैसे समझाऊं कि रीठागाड़ी जी से अब कभी मिलना नहीं हो पाएगा. अब कौन सुनाएगा मुझे बैर-भगनौल. काश मैंने वो रिकॉडिंग हटाई न होती. हालांकि अपने मित्र राजेंद्र ढैला से रीठागाड़ी जी की दो मोबाइल रिकॉडिंग मैंने व्हाट्सएप से मंगा ली हैं.

अलविदा रीठागाड़ी जी.. कुमाऊंनी लोक विधा की अद्भुत धरोहर जो आप छोड़ गए हैं, उसके लिए आप हमेशा याद किए जाते रहेंगे..

(श्रद्धांजलि स्वरूप)
25 मई, 2017



Monday, 22 May 2017

यात्रा वृतांत

मुनस्यारी: जहां हिमालय करता है आपकी अगुवानी

हिमालय को देखने, जीने और महसूस करने के लिए भला हिमालय जाने की जरूरत है? हम खुद हिमालय के वासी हैं. पहाड़, पेड़, जंगल, शीतल जल ये सब हमारे आसपास भी तो मौजूद है. दिसंबर से फरवरी के बीच हमें अपने आसपास ही बर्फ का दीदार हो जाता है. खूब मस्ती करते हैं. ठीक ऐसे जैसे छोटे बच्चे सावन की बरसात में उछलकूद करते दिखते हैं.

बेरीनाग से थल जाते हुए ये नजारे ध्यान खींच लेते हैं
मेरी ही तरह आम पहाड़ी के मन में भी गाहे-बगाहे ये सवाल उठते होंगे. लेकिन इस बार इन सभी सवालों को दरकिनार कर हम हिमालय दर्शन का मन बचा चुके थे. धौलादेवी जो अपने आप में किसी परिपूर्ण सौंदर्य से कम नहीं. देवदार के घने जंगल के बीच शाम के समय हम 18-20 युवा क्रिकेट खेल रहे थे. बात बात में कन्नू पूछ बैठा, भाई कितने दिन की छुट्टी है? दो-तीन दिन हूं. मेरा ये जवाब सुनकर एकाएक वो बोला- भाई कहीं घूमने का प्लान बनाएं? मेरी हामी के बाद चौकोड़ी और मुनस्यारी जाने पर सहमति बनी. तय हुआ कि दो बाइकों से चार लोग सुबह 8 बजे निकल पड़ेंगे.
सुबह सवा आठ बजे हम चारों घर के ऊपर खड़े थे. बाया बाड़ेछीना, सेराघाट निकलने का तय हुआ. बाइक में सेल्फ लेकर चारों निकल पड़े. धौलछीना तक का सफर कोई नया नहीं था. चीड़ के वृक्षों के बीच सकरी सड़क से सफर आगे बढ़ा. हुलार में उतरते हुए यही कोई 11 बजे हम सेराघाट पहुंचे. वाहन से किसी व्यक्ति को आता देख ढाबे वालों के चेहरे खिल जाते हैं. आओ मच्छी-भात, मच्छी-भात..। यह आवाज आभास कर देती है कि आप सरयू तट पर पहुंच गए हैं. यह वही जीवनदायनी सरयू है जो बागेश्वर से सेराघाट होते हुए घाट-पनार की तरफ बढ़ते हुए आगे निकल जाती है. मच्छी के शौकीन सरयू की मच्छी को खास बताते हैं. यही वजह है कि यहां मच्छी के दाम अन्य जगह से अधिक हैं.
सेराघाट की तपती दोपहरी में सरयू के तट पर ली गई तस्वीर
बाजार पार करते ही सरयू के दर्शन होते हैं. मई की तपती दोपहरी में सरयू के तट पर जाए बगैर रहा नहीं जा सकता. सरयू के पावन जल में डुबकी लगाते ही तन, मन शीतल हो जाता है. छोटे बच्चे आपको नदी में उलट-पुलट कर करतब दिखाते दिख ही जाएंगे. खैर, कुछ देर सुस्ताने के बाद हम आगे निकल पड़े हैं. गणाईगंगोली से राईआगर तक का सफर चीड़ के पेड़ों के बीच से होकर निकलता है. यहां से आप धीरे धीरे घाटी से ऊपर की ओर निकलने लगते हैं. दो घंटे का सफर तय करते हुए दोपहर 2.15 बजे बेरीनाग बाजार में पदार्पण होता है. बाजार देख आभास हो जाता है कि बेरीनाग ठीक-ठाक कस्बा है.
बेरीनाग से थल जाते समय सूर्योदय का नजारा
बेरीनाग में पुराने मित्र पत्रकार सुधीर राठौर से मिलना हुआ. बातचीत में हमने कहां कि मुनस्यारी के लिए जाना है, रास्ता बताने के साथ हमारा मार्गदर्शन भी करें. दोस्त ने नसीहत दी कि मुनस्यारी में आजकल दोपहर 2 बजे बाद रोज बारिश हो रही है. लिहाजा आज वहां जाना न तो संभव है और न उचित. क्योंकि मौसम का क्या ठिकाना. जाने कब रास्ते बंद हो जाएं, ऊपर से तुम लोग बाइक से हो. बोले- आज यही रहो, कल सुबह मुनस्यारी के लिए निकलना. खैर, मित्र की सलाह मानना हमारे लिए धर्म बन गया. चौकोड़ी घूमकर फिर यहीं लौटते हैं आपके पास, कहकर हमने मित्र से इजाजत ली. 8 किमी दूर स्थित चौकाड़ी पहुंचे भी न थे कि रिमझिम बारिश शुरू हो गई. लगा कि दोस्त की बात सौ आने सच हो गई. बांज-चीड़ के जंगलों के बीच बसे चौकोड़ी में निर्माणाधीन मकान के आंगन में शरण ली. तेज हवाओं के साथ दो घंटे तक जमकर बारिश हुई. बाद में पता चला कि इसी अंधड़ और बारिश से पूरा पिथौरागढ़ जिला अंधेरे में डूब गया है. बारिश के बीच आग जलाकर ठंड से बचाव किया. इसी बीच फिक्रमंद दोस्त का फोन आ गया कि अभी बारिश है. सुरक्षित ठिकाने में रहें अभी न निकलें.
पंचाचुली की चोटी दूर से ही आकर्षित करने लगती है 
बारिश थमने के बाद शाम 6 बजे हम लोग वापस बेड़ीनाग की तरफ लौटे. मित्र ने बेड़ीनाग बाजार के बीचोंबीच एक होटल में ठहरने की व्यवस्था की थी. बोले बारिश के बीच आप लोग कुछ देख तो नहीं पाए होगे. वैसे चौकोड़ी में अब देखने लायक कुछ खास बचा नहीं है. पुराना चाय बागान उजड़ गया है. अंधाधुंध निर्माण कार्यों ने चौकोड़ी की सुंदरता को निगल लिया है. पुराने नाम की वजह से लोग आज भी घूमने आ जाया करते हैं. दोस्त के इन शब्दों ने थोड़ी चिंता पैदा कर दी. वैसे यहां घूमने आने वालों के लिए बेरीनाग और चौकोड़ी में ठहरने की उचित व्यवस्था है. मुनस्यारी और हिमालय के दूसरे ग्लेशियर घूमने के इच्छुक लोग एक शाम बेड़ीनाग में पड़ाव डाल सकते हैं. खैर, बिजली नहीं होने से हमने यहां कैंडल नाइट डिनर किया. मोबाइल की बैटरी भी जवाब देने लगी थी. कल भी कुछ तस्वीरें कैद करनी हैं करके मोबाइलों को बंद किया और खुद भी सो गए.
टिमटिया से मुनस्यारी जाते हुए ऐसे कई नजारें दिख जाते हैं
सुबह आंख खुली तो बाहर का नजारा देख मन खुश हो गया. सुबह 6 बजे ही झोलाझंडी पकड़कर मुनस्यारी को रवाना हो गए. हिमालय की ओट से निकलते सूर्यदेव ने मनमोहक छठा बिखेर दी. कुछ फोटुए करने से खुद को रोक नहीं पाए. थल, नाचनी से होते हुए टिमटिया तक हम किसी घाटी में उतरते चले गए. यहां से आगे निकलने पर लगा कि हिमालय की असली यात्रा तो अब शुरू हुई है. क्‍वीटी, डोर होते हुए गिरगांव को जाते हुए लगता है कि मई में ही चौमास आ गया है. धरती हरी-भरी श्रृंगार किए हुए है. हरे-भरे पेड़, आसमान में तैरती बादलों की सफेद चादर ध्यान खींचते हैं. बिर्थी फाल दूर से ही आकर्षित करने लगता है. नजदीक पहुंचने पर आभास होता है कि बिर्थी फाल के क्या मायने हैं. बिर्थी फाल के पास मस्ती करने, शीतल जल में नहाने और फोटुए खिंचाने के लिए एक घंटे का समय कम लगता है. सकरी सड़क, ऊंची चट्टानों से होते हुए रातापानी और फिर कालामुनि तक का सफर तय होता है. यहां से हिमालय साक्षात खड़ा नजर आता है. इसी बीच एक खूबसूरत बाजार आती है. जगह-जगह लगे बोर्ड, बड़े रिजार्ट, देसी-विदेशी पर्यटक, खूबसूरत बुग्याल, हर तरफ हरियाली अहसास करा देती है कि आप मुनस्यारी पहुंच चुके हैं.
बिर्थी फोल : ऐसा लगता है मानो जन्नत में पहुंच गए हैं
मुनस्यारी आपको आनंदित कर देती है। जिस हिमालय को हम चित्रों या टेलीविजन में देखते आए हैं. वह साक्षात सामने खड़ा अद्भुत लग रहा है. मन करता है और आगे जाया जाए और हिमालय के साथ खूब मस्ती की जाए. जिसके पास समय अधिक है वह खलियाटॉप और उच्च हिमालयी बुग्यालों का आनंद ले सकते हैं. ट्रैकिंग के शौकीन मिलम ग्लेशियर जा सकते हैं. खैर, अब मौसम डराने लगा है. 2 बजे बाद बारिश का डर है. लिहाजा दिन का भोजन करने के बाद दोपहर 12 बजे हम मदकोट, बंगापानी, बरम होते हुए जौलजीबी को रवाना हो चुके हैं. कई जगह सड़कें टूटी हुई हैं. इसलिए वाहन चलाने में सावधानी जरूरी है. जौलजीबी से धारचूला और उससे आगे दारमा, व्यास और चौदास आदि वैली के लिए जाया जा सकता है. यह वे वैली हैं जहां के लोग जाड़ों में माइग्रेशन कर भाबर आ आते हैं. यहां के गांव छह महीने बर्फ से ढके रहते हैं. समय की कमी के चलते इस बार इन वैलियों में जाना नहीं हो पाया. 
क्वीटी से आगे ये चट्टान आपको डराने के साथ हौसला भी देते हैं
जौलजीबी से अस्कोट तक की सड़क काफी खुश कर देती है। कनालीछीना पहुंचने से पहले एक बार फिर हमारी परीक्षा शुरू होती है. कनालीछीना से 3 किमी पहले गुड़ौली में बारिश हमारी राह दो घंटे तक रोके रखती है. बारिश कम होने पर पांच बजे आगे को निकलते हैं. छिटपुट बारिश के बीच शाम 7 बजे पिथौरागढ़ पहुंचते हैं. यहां बिजली की पावर पाकर बंद पड़े मोबाइल खुलते हैं. तब घर वालों से खैरियत होती है. पिथौरागढ़ के चंडाक रोड से सुबह सबेरे का दृश्य मनमोहक होता है. यहां से गुरना, घाट, पनार, ध्याड़ी, दन्या होते हुए कई सारी यादों के साथ सुबह 10:15 बजे हम घर पहुंचते हैं.

कब आएं मुनस्यारी
वैसे तो मुनस्‍यारी का मौसम सालभर खुशनुमा रहता है लेकिन अप्रैल से मई और अक्तूबर से नवंबर भ्रमण के लिए उपयुक्त हैं। वसंत ऋतु में यहां की छटा देखने लायक होती है। जून, जुलाई में आने से बचना चाहिए, क्योंकि इन दो महीनों में यहां काफी बारिश होती है। जिससे कभी-कभी रास्‍ते बंद हो जाते हैं। नवंबर से फरवरी तक बर्फबारी का मजा ले सकते हैं।

Thursday, 18 May 2017

'बेटी न मारा ओ दाज्यू हो म्यारा, गर्भ भितेरा बेटी न मारा'

‘बेटी न मारा ओ दाज्यू हो म्यारा, गर्भ भितेरा बेटी न मारा’
::अच्छी पहल ::
-लोकगायक प्रह्लाद मेहरा ने गीत से दिया बेटी बचाने का मार्मिक संदेश
-दाज्यू और भौजी को संबोधित कुमाऊंनी गीत यूट्यूब पर जारी

तड़क भड़क से हटकर वास्तविक लोक संगीत के लिए काम करने वाले सुप्रसिद्ध लोक गायक प्रह्लाद मेहरा इस दिशा में एक और कड़ी जोड़ी है। लोक गायक मेहरा ने अपने हालिया गीत ‘गर्भ भितेर बेटी न मार’ के जरिए बेटियों को बचाने की मार्मिक अपील की है। गाने में शब्दों और भावों को ऐसे पिरोया है कि सुनने वाला किसी गहराई में उतरता चला जाता है।
लोकगायक प्रह्लाद मेहरा के गीतों में समाज के लिए कोई न कोई सार्थक संदेश होता है। चांदनी इंटरप्राइजेज के बैनर तले गायक प्रह्लाद मेहरा का नया गीत आया है। दाज्यू और भौजी को संबोधित गीत में गायक मेहरा ने कन्या भ्रूण हत्या नहीं करने की अपील की है। गीत के बोल ‘बेटी न मारा ओ दाज्यू हो म्यारा, गर्भ भितेरा बेटी न मारा, लिंग जांच करूंण भारी जुलूमा, भौजी हो मेरी जुल्म न करा’ किसी को भी झकझोर सकते हैं। आगे की पंक्तियां कहती हैं कि बेटा भाग्य से होता है, जबकि बेटियां सौभाग्य से जन्म लेती हैं। चेलों से अधिक मायादार चेलियां होती हैं, तो भौजी फिर च्याल-चेलियों में फरक क्यों? बढ़ते लिंगानुपात पर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि भौजी अगर चेलियां ही नहीं होंगी तो फिर ब्वारी (बहू) कहां से लाओगी? नवीन टोलिया के सहयोग से निर्मित गीत को गायक प्रह्लाद मेहरा ने खुद लिखा है।

जल्द वीडियो रूप में आएगा गीत :
मेहरा ने बताया कि दो साल से इस गीत की रिकॉर्डिंग का विचार चल रहा था। अब सपना साकार हुआ है। कहते हैं बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान से उन्हें इस गीत को लिखने की प्रेरणा मिली। उम्मीद है इसका असर दिखेगा। अगली कोशिश गीत को वीडियो रूप में लाने की है।


घाम छाया लै गीत को मिली सराहना :
चांदनी इंटरप्राइजेज की हालिया एलबम ‘घाम छाया लै’ को लोगों ने खूब सराहा है। एलबम के शीर्षक गीत घाम छाया लै, आंग गल्यो पसीने लै मन माया लै.. को गायक प्रह्लाद मेहरा और गायिका मीना राणा ने गाया है। 14 अप्रैल को यूट्यूब पर अपलोड गीत को अब तक 27, 614 लोग देख चुके हैं। 

Monday, 8 May 2017

कविता : पहाड़ ऐ जाया

जेठ-बैशाख दाज्यू पहाड़ ऐ जाया
हिसालु, किलमोड़ा, काफल खै जाया।

मिठ-मिठ काफल् कि भल लागैला
खट-मिठ किलमोड़ा कि निक लागौल्
रसिल् हिसालु टाप-टिप खै जाला।

जेठ-बैशाख दाज्यू पहाड़ ऐ जाया
हिसालु, किलमोड़ा, काफले खै जाया।

नौल क ठंडो-मीठो पाणि पी जाला
बांजा बोटा मूड़ी स्योव भै जाला
बखड़ भैंसकि धिनाली खै जाला।

जेठ-बैशाख दाज्यू पहाड़ ऐ जाया
हिसालु, किलमोड़ा, काफल खै जाया।

Saturday, 6 May 2017

वो पेड़ और काफल से भरी जेबें..

इंडियन कुक्कू (काफल पाक्को)
गांव से 140 किमी दूर हल्द्वानी में रोज की तरह सोया था। सुबह उठकर नित्य क्रिया करने के बाद खाना बनाने की जुगत में लग गया। यही कोई 8 से 8:30 बजे के बीच का समय होगा। अचानक कान में एक आवाज पड़ी। एकाएक विश्वास नहीं हुआ। दूबारा सुना तो मैं समझ गया कि यह वही आवाज है जिसे हम गांव में अप्रैल, मई के महीने सुना करते थे। काफल पाक्को.. काफल पाक्को..। जब भी यह आवाज सुनाई देती भाई बहन एक दूसरे से कहते देख भैया काफल पक गए.. चिड़िया बोल रही है। फिर क्या था हम निकल पड़ते, घर के आसपास काफल की तलाश में। काफल नहीं पके होने पर ऐसे एक पेड़ से दूसरे पेड़ दौड़ लगाते, जैसे कोई चिड़िया फुर्र कर एक से दूसरे पेड़ उड़ जाती है। कहीं न कहीं काफल मिल ही जाते। छोटी उमर में बड़े पेड़ों पर चढ़ना मुमकीन नहीं होता था। छोटे पेड़ों पर ही चढ़ जाया करते। बड़े पेड़ों में एक दूसरे को कंधे का सहारा देकर पेड़ में चढ़ाने का प्रयास करते। 
काफल
क्या दिन थे वो। मां डांटती की पेड़ों में मत जाना गिर जाओंगे। पर हम कहां मानने वाले थे। धीरे धीरे इतने माहिर हो गए कि बड़े बड़े पेड़ों में चढ़ जाया करते। लाल-काले काफल क्या खूब खाते। कई बार तो काफल गले तक भर जाते। घर आने पर मां खाना खाने को कहती। कहते इजा भूख ही नहीं है, मां झट समझ जाती। आ गए दोनों भाई काफल खाकर। तब जेब से मुठ्ठी में काफल भरकर मां को भी काफल दिया करते। काफल क्या देते, मां हम पर भी बरस पड़ती। कहां जेब में काफल लाया है, पैंट में दाग लग जाएगा। मैं नहीं धोऊंगी। बड़ी मुश्किल से इजा को मनाते।
अरे ये क्या! काफल पाक्को की आवाज ने तो मुझे गांव पहुंचा दिया। बचपन याद दिला दिया। कई सालों बाद मैंने हल्द्वानी में काफल पाक्को की आवाज सुनी थी। एकाएक सुनकर विश्वास नहीं हुआ। गाड़ियों के शोर के बीच शहरी आवोहना में काफल पाक्को की आवाज सुनकर जहां मैं अचंभित था, वहीं एक संतोष भी मुझे मिला। लगा आवाज मुझे गांव बुला रही है और कह रही है कि आ फिर लौटे सुनहरे बचपन की तरफ। वो पेड़ और काफल से भरी जेबें..

बिखरती सामाजिकता, भूलते रीति-रिवाज

समय के साथ कदमताल करता इंसान अपनी परंपराओं को भूलता जा रहा है। शहरों की चकाचौंध में रीति-रिवाज पीछे छूट रहे हैं। सामाजिकता बिखर रही है। अपराध, असुरक्षित माहौल, तारतार होते रिश्ते समाज को आशंकित कर रहे हैं। अथाह संपत्ति कमाने की चाह ने भी लोगों को अंधा बना दिया है। पिछले आठ सालों में तीन जगह के अनुभव ने मुझे इसका अहसास कराया है।
पूड़ी, सब्जी 

बात सितंबर 2009 की है। विश्व बैंक की ओर से सहायतित आजीविका आधारित प्रोजेक्ट के तहत मैं ध्याड़ी कस्बे में कार्यरत था। अल्मोड़ा से घाट-पनार होते हुए पिथौरागढ़ जाने वाले रूट में स्थित ध्याड़ी अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 66 किमी दूर है। अपने एक सीनियर सहकर्मी के साथ मैं किराए के कमरे में रहता था। सब्जी अक्सर वो बनाते, आटा गूंथकर रोटी बनाने का जिम्मा मेरे ऊपर था। मैं एक चौड़ी सी थाली में आटा गूंथा करता। शाम को एक दिन मैं आटा गूंथ रहा था, पता नहीं अदखुले दरवाजे से जाने कब गीता दी (मकान मालकिन) की नजर पड़ी। कुछ देर में गीता दी ने आवाज दी- पांडे जी! मैं दरवाजे पर पहुंचा। कुछ बोलता, गीता दी पहले ही बोल पड़ीं- ये लो परात, इसमें आटा गूंथा करना..।
परात से याद आया, जिस गैसचूल्हे पर हम खाना पकाते और जो सिलेंडर यूज करते वह भी गीता दी का ही था। यहां तक की तवा भी गीता दी ने दिया था। कमरे में लगी पुरानी सी खाट सो अलग। आसपास क्यारियों में हमेशा हरी सब्जी रहती। गीता दी कहा करती, जब जो सब्जी खाने का मन हो खेत से तोड़ लिया करना। गीता दी के पति बिष्ट जी केएमवीएन में थे। जब कभी महीने दिन में बिष्ट जी घर आते उस दिन हमारा खाना बिष्ट जी के घर से आता।
एक और खास बात थी, जब कभी त्यार-ब्यार होता पूड़ी, हलवा, मास के बड़ आदि हम तक पहुंच जाते। गीता दी से हमारा परिवार जैसा रिश्ता था। आसपास के अन्य लोग भी त्यार देने पहुंचते थे। इस सबके बावजूद हम इतने ढीढ थे कि मात्र 500 रुपये किराए को कभी दो-तीन तो कभी पांच महीने में चुकाते थे।
ठीक चार साल बाद सितंबर 2013 में मैं अमर उजाला पिथौरागढ़ चला गया। हमारे फोटोग्राफर साथी विपिन गुप्ता ने मुझे इसाई परिवार में मनोज एलेक्जेंडर 'गुड्डू' अंकल के घर में कमरा दिलाया। 1000 रुपये किराया तय हुआ। मेरे पास किराए के कमरे में रहने के लिए कोई भी साजो सामान नहीं था। क्योंकि मैं दो जोड़ी कपड़े कच्छा-बनियान, टूथब्रैश, पेस्ट आदि बैग में डाकलर ही पिथौरागढ़ चला गया था। खैर, मकान मालिक ने दूसरे कमरे में ठहराया। बोले- जब तक सामान नहीं ले आते, निसंकोच यहां रहो। सुबह हुई- दरवाजे पर नानी ने लॉक किया- बोली, चाय पी लो..। दरअसल, अंकल के बच्चों की नानी साथ रहती थी। प्यार से मैं भी उन्हें नानी बुलाया करता। थोड़ी देर में अंकल ने नाश्ते के लिए अपने ड्राइंग रूम में बुला लिया। मैं बड़े संकोच के साथ छह रोटी खा गया। क्योंकि अंकल बेटा संकोच न करो कहकर, थाली में रोटियां जबरन डाल देते। इतने में अंकल बोले- शाम को खाना बनाकर रखेंगे? अंकल नहीं, रात को मैं बाहर से खाकर लौटूंगा, कहकर मैंने प्रतिक्रिया दी। खैर यह सिलसिला 20-22 दिन चला। 
बाद में अमर उजाला ने इंटरव्यू के लिए मुझे हल्द्वानी बुलाया। तब हल्द्वानी से लौटने के बाद अपने सामान के साथ मैं पिथौरागढ़ गया। 14 मई 2015 तक करीब पौने दो साल मैं पिथौरागढ़ रहा। इस दौरान जब भी क्रिसमस या बच्चों का जन्मदिन पड़ता, स्पेशल केक मेरे कमरे में पहुंच जाता। महीने में जब मैं घर आने के बाद पिथौरागढ़ लौटता तो उस दिन मुझे खाना नहीं बनाना पड़ता। नानी उस शाम रोटी-सब्जी की थाली लेकर मेरे दरवाजे पर आ जाती।
अंकल जी के घर की क्यारियों से मूली, लाई, धनियां, कद्दू, मटर खूब झूले रहते। अंकल-आंटी अक्सर कहते, बेटा- कभी खाने का मन हो तो सब्जी तोड़ लिया करो। खैर- मैंने सब्जी तो कभी नहीं तोड़ी, लेकिन पौने दो साल का समय बड़े प्यार और अपनेपन से बीता।
मई 2015 में मैं हिन्दुस्तान हल्द्वानी में आ गया। शुरुआत के छह महीने मामा लोगों के साथ रहा। नवंबर 2015 में दोनहरिया के पास किराए का कमरा लिया। बातों बातों में मकान मालिक से परिचय हुआ और पता चला कि वह हमारे धौलादेवी ब्लाक के भनोली की तरफ के रहने वाले हैं। जानकर अपनापन जैसा फील हुआ। लगा अपने ही पहाड़ी लोग हैं, अच्छी निभेगी। पर हुआ कुछ और। धीरे धीरे लगने लगा शहरों में आ बसे लोग अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज और सामाजिकता गांव में ही छोड़ आए हैं। कभी लगा ही नहीं कि हरेला, घुघुतिया, बिखौती, फूलदेई जैसे त्योहार भी आए हों। सच बताऊं तो मैं भी इन त्योहारों को भूलने जैसा लगता। कमरे और आसपास गली से गुजरते हुए कभी भी पकवानों की महक नथूलों में नहीं घुसी। ध्याड़ी और पिथौरागढ़ की तरह त्यार-ब्यार में पूड़ी, हलवा और कभी नक-भल (अच्छे बुरे) में खाना मिलना तो मेरी कल्पना में ही नहीं आया।
घर में इजा और बच्चों से फोन पर बात करने पर पता चलता कि कल-परसों में फला त्यार (त्योहार) गुजर गया। इजा कहती- ‘त्वेलि चुपड़ि रवाट खाई न? पोरू बिसुवक त्यार छि’ अर्थात तूने घी लगी रोटियां खाई की नहीं, परसों बिसुवत संक्राति का त्योहार था। कुमाऊं में मान्यता है कि बिसुवत संक्रांति के दिन घी लगी रोटियां खाने से विष नहीं लगता। 
अब कमरे के किराए पर आता हूं- एडंवास किराया देने पर मकान मालिक ने मेरे नाम से कमरा चढ़ा दिया था। महीना पूरा हुआ ही था कि बालकनी में फूलों पर पानी डालते मकान मालिक ने डियर सुनो क्या नाम है आपका कहकर आफिस जाते जाते टोक दिया। मैंने कहा- अंकलजी नमस्कार गणेश नाम हैं मेरा। बोले- याद है, क्या तारीख है आज? मैं बोला- 14. कहने लगे किराया नहीं दिया आपने। सहमते हुए मैं बोला, अंकल आज ही से तो महीना शुरू हुआ है, बीते महीने का किराया मैं आपको एडवांस दे चुका है। कहते लगे- ‘आपको हर महीने एडवांस किराया देना होगा। इधर महीना शुरू, उधर किराया हाथ में। वो क्या है ना सिस्टम बनाने की बात है, जैसी आदत डालोगे वहीं सिस्टम बन जाएगा। मेरे लिए भी अच्छा आपके लिए भी..’। मैं बोला अंकल ठीक है, पर इस महीने थोड़ी दिक्कत है अगले महीने से एडंवास दे दिया करूंगा। तपाक से बोले- तब तो दो महीने का किराया दोगे। एक बीतने वाले महीने का एक आने वाले का.. खैर, तबसे एडवांस किराया ही देते आया हूं..
और भी बहुत सारी बातें हैं जिसने मुझे सोचने पर मजबूर किया। सोच रहा हूं क्या शहरों में आ गए लोग अपने तीज त्योहार भूल गए हैं? क्या शहरों में रहते लोग एक दूसरे से त्योहारों की खुशियां बांटना जरूरी नहीं समझते? क्या हम अपने सामाजिक और मानवीय मूल्यों को भुलाते जा रहे हैं? इतना अकेलापन क्यों? समाज क्यों टूट रहा है? क्यों पनप रही हैं दूरियां? भौतिकतावाद कहीं जरूरत से ज्यादा हावी तो नहीं हो रहा? आपके पास इनके जवाब या फिर कोई अनुभव हो तो जरूर साझा करें।