समय के साथ कदमताल करता इंसान अपनी परंपराओं को भूलता जा रहा है। शहरों की चकाचौंध में रीति-रिवाज पीछे छूट रहे हैं। सामाजिकता बिखर रही है। अपराध, असुरक्षित माहौल, तारतार होते रिश्ते समाज को आशंकित कर रहे हैं। अथाह संपत्ति कमाने की चाह ने भी लोगों को अंधा बना दिया है। पिछले आठ सालों में तीन जगह के अनुभव ने मुझे इसका अहसास कराया है।
बात सितंबर 2009 की है। विश्व बैंक की ओर से सहायतित आजीविका आधारित प्रोजेक्ट के तहत मैं ध्याड़ी कस्बे में कार्यरत था। अल्मोड़ा से घाट-पनार होते हुए पिथौरागढ़ जाने वाले रूट में स्थित ध्याड़ी अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 66 किमी दूर है। अपने एक सीनियर सहकर्मी के साथ मैं किराए के कमरे में रहता था। सब्जी अक्सर वो बनाते, आटा गूंथकर रोटी बनाने का जिम्मा मेरे ऊपर था। मैं एक चौड़ी सी थाली में आटा गूंथा करता। शाम को एक दिन मैं आटा गूंथ रहा था, पता नहीं अदखुले दरवाजे से जाने कब गीता दी (मकान मालकिन) की नजर पड़ी। कुछ देर में गीता दी ने आवाज दी- पांडे जी! मैं दरवाजे पर पहुंचा। कुछ बोलता, गीता दी पहले ही बोल पड़ीं- ये लो परात, इसमें आटा गूंथा करना..।
परात से याद आया, जिस गैसचूल्हे पर हम खाना पकाते और जो सिलेंडर यूज करते वह भी गीता दी का ही था। यहां तक की तवा भी गीता दी ने दिया था। कमरे में लगी पुरानी सी खाट सो अलग। आसपास क्यारियों में हमेशा हरी सब्जी रहती। गीता दी कहा करती, जब जो सब्जी खाने का मन हो खेत से तोड़ लिया करना। गीता दी के पति बिष्ट जी केएमवीएन में थे। जब कभी महीने दिन में बिष्ट जी घर आते उस दिन हमारा खाना बिष्ट जी के घर से आता।
एक और खास बात थी, जब कभी त्यार-ब्यार होता पूड़ी, हलवा, मास के बड़ आदि हम तक पहुंच जाते। गीता दी से हमारा परिवार जैसा रिश्ता था। आसपास के अन्य लोग भी त्यार देने पहुंचते थे। इस सबके बावजूद हम इतने ढीढ थे कि मात्र 500 रुपये किराए को कभी दो-तीन तो कभी पांच महीने में चुकाते थे।
ठीक चार साल बाद सितंबर 2013 में मैं अमर उजाला पिथौरागढ़ चला गया। हमारे फोटोग्राफर साथी विपिन गुप्ता ने मुझे इसाई परिवार में मनोज एलेक्जेंडर 'गुड्डू' अंकल के घर में कमरा दिलाया। 1000 रुपये किराया तय हुआ। मेरे पास किराए के कमरे में रहने के लिए कोई भी साजो सामान नहीं था। क्योंकि मैं दो जोड़ी कपड़े कच्छा-बनियान, टूथब्रैश, पेस्ट आदि बैग में डाकलर ही पिथौरागढ़ चला गया था। खैर, मकान मालिक ने दूसरे कमरे में ठहराया। बोले- जब तक सामान नहीं ले आते, निसंकोच यहां रहो। सुबह हुई- दरवाजे पर नानी ने लॉक किया- बोली, चाय पी लो..। दरअसल, अंकल के बच्चों की नानी साथ रहती थी। प्यार से मैं भी उन्हें नानी बुलाया करता। थोड़ी देर में अंकल ने नाश्ते के लिए अपने ड्राइंग रूम में बुला लिया। मैं बड़े संकोच के साथ छह रोटी खा गया। क्योंकि अंकल बेटा संकोच न करो कहकर, थाली में रोटियां जबरन डाल देते। इतने में अंकल बोले- शाम को खाना बनाकर रखेंगे? अंकल नहीं, रात को मैं बाहर से खाकर लौटूंगा, कहकर मैंने प्रतिक्रिया दी। खैर यह सिलसिला 20-22 दिन चला।
बाद में अमर उजाला ने इंटरव्यू के लिए मुझे हल्द्वानी बुलाया। तब हल्द्वानी से लौटने के बाद अपने सामान के साथ मैं पिथौरागढ़ गया। 14 मई 2015 तक करीब पौने दो साल मैं पिथौरागढ़ रहा। इस दौरान जब भी क्रिसमस या बच्चों का जन्मदिन पड़ता, स्पेशल केक मेरे कमरे में पहुंच जाता। महीने में जब मैं घर आने के बाद पिथौरागढ़ लौटता तो उस दिन मुझे खाना नहीं बनाना पड़ता। नानी उस शाम रोटी-सब्जी की थाली लेकर मेरे दरवाजे पर आ जाती।
अंकल जी के घर की क्यारियों से मूली, लाई, धनियां, कद्दू, मटर खूब झूले रहते। अंकल-आंटी अक्सर कहते, बेटा- कभी खाने का मन हो तो सब्जी तोड़ लिया करो। खैर- मैंने सब्जी तो कभी नहीं तोड़ी, लेकिन पौने दो साल का समय बड़े प्यार और अपनेपन से बीता।
मई 2015 में मैं हिन्दुस्तान हल्द्वानी में आ गया। शुरुआत के छह महीने मामा लोगों के साथ रहा। नवंबर 2015 में दोनहरिया के पास किराए का कमरा लिया। बातों बातों में मकान मालिक से परिचय हुआ और पता चला कि वह हमारे धौलादेवी ब्लाक के भनोली की तरफ के रहने वाले हैं। जानकर अपनापन जैसा फील हुआ। लगा अपने ही पहाड़ी लोग हैं, अच्छी निभेगी। पर हुआ कुछ और। धीरे धीरे लगने लगा शहरों में आ बसे लोग अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज और सामाजिकता गांव में ही छोड़ आए हैं। कभी लगा ही नहीं कि हरेला, घुघुतिया, बिखौती, फूलदेई जैसे त्योहार भी आए हों। सच बताऊं तो मैं भी इन त्योहारों को भूलने जैसा लगता। कमरे और आसपास गली से गुजरते हुए कभी भी पकवानों की महक नथूलों में नहीं घुसी। ध्याड़ी और पिथौरागढ़ की तरह त्यार-ब्यार में पूड़ी, हलवा और कभी नक-भल (अच्छे बुरे) में खाना मिलना तो मेरी कल्पना में ही नहीं आया।
घर में इजा और बच्चों से फोन पर बात करने पर पता चलता कि कल-परसों में फला त्यार (त्योहार) गुजर गया। इजा कहती- ‘त्वेलि चुपड़ि रवाट खाई न? पोरू बिसुवक त्यार छि’ अर्थात तूने घी लगी रोटियां खाई की नहीं, परसों बिसुवत संक्राति का त्योहार था। कुमाऊं में मान्यता है कि बिसुवत संक्रांति के दिन घी लगी रोटियां खाने से विष नहीं लगता।
अब कमरे के किराए पर आता हूं- एडंवास किराया देने पर मकान मालिक ने मेरे नाम से कमरा चढ़ा दिया था। महीना पूरा हुआ ही था कि बालकनी में फूलों पर पानी डालते मकान मालिक ने डियर सुनो क्या नाम है आपका कहकर आफिस जाते जाते टोक दिया। मैंने कहा- अंकलजी नमस्कार गणेश नाम हैं मेरा। बोले- याद है, क्या तारीख है आज? मैं बोला- 14. कहने लगे किराया नहीं दिया आपने। सहमते हुए मैं बोला, अंकल आज ही से तो महीना शुरू हुआ है, बीते महीने का किराया मैं आपको एडवांस दे चुका है। कहते लगे- ‘आपको हर महीने एडवांस किराया देना होगा। इधर महीना शुरू, उधर किराया हाथ में। वो क्या है ना सिस्टम बनाने की बात है, जैसी आदत डालोगे वहीं सिस्टम बन जाएगा। मेरे लिए भी अच्छा आपके लिए भी..’। मैं बोला अंकल ठीक है, पर इस महीने थोड़ी दिक्कत है अगले महीने से एडंवास दे दिया करूंगा। तपाक से बोले- तब तो दो महीने का किराया दोगे। एक बीतने वाले महीने का एक आने वाले का.. खैर, तबसे एडवांस किराया ही देते आया हूं..
और भी बहुत सारी बातें हैं जिसने मुझे सोचने पर मजबूर किया। सोच रहा हूं क्या शहरों में आ गए लोग अपने तीज त्योहार भूल गए हैं? क्या शहरों में रहते लोग एक दूसरे से त्योहारों की खुशियां बांटना जरूरी नहीं समझते? क्या हम अपने सामाजिक और मानवीय मूल्यों को भुलाते जा रहे हैं? इतना अकेलापन क्यों? समाज क्यों टूट रहा है? क्यों पनप रही हैं दूरियां? भौतिकतावाद कहीं जरूरत से ज्यादा हावी तो नहीं हो रहा? आपके पास इनके जवाब या फिर कोई अनुभव हो तो जरूर साझा करें।
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पूड़ी, सब्जी |
बात सितंबर 2009 की है। विश्व बैंक की ओर से सहायतित आजीविका आधारित प्रोजेक्ट के तहत मैं ध्याड़ी कस्बे में कार्यरत था। अल्मोड़ा से घाट-पनार होते हुए पिथौरागढ़ जाने वाले रूट में स्थित ध्याड़ी अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 66 किमी दूर है। अपने एक सीनियर सहकर्मी के साथ मैं किराए के कमरे में रहता था। सब्जी अक्सर वो बनाते, आटा गूंथकर रोटी बनाने का जिम्मा मेरे ऊपर था। मैं एक चौड़ी सी थाली में आटा गूंथा करता। शाम को एक दिन मैं आटा गूंथ रहा था, पता नहीं अदखुले दरवाजे से जाने कब गीता दी (मकान मालकिन) की नजर पड़ी। कुछ देर में गीता दी ने आवाज दी- पांडे जी! मैं दरवाजे पर पहुंचा। कुछ बोलता, गीता दी पहले ही बोल पड़ीं- ये लो परात, इसमें आटा गूंथा करना..।
परात से याद आया, जिस गैसचूल्हे पर हम खाना पकाते और जो सिलेंडर यूज करते वह भी गीता दी का ही था। यहां तक की तवा भी गीता दी ने दिया था। कमरे में लगी पुरानी सी खाट सो अलग। आसपास क्यारियों में हमेशा हरी सब्जी रहती। गीता दी कहा करती, जब जो सब्जी खाने का मन हो खेत से तोड़ लिया करना। गीता दी के पति बिष्ट जी केएमवीएन में थे। जब कभी महीने दिन में बिष्ट जी घर आते उस दिन हमारा खाना बिष्ट जी के घर से आता।
एक और खास बात थी, जब कभी त्यार-ब्यार होता पूड़ी, हलवा, मास के बड़ आदि हम तक पहुंच जाते। गीता दी से हमारा परिवार जैसा रिश्ता था। आसपास के अन्य लोग भी त्यार देने पहुंचते थे। इस सबके बावजूद हम इतने ढीढ थे कि मात्र 500 रुपये किराए को कभी दो-तीन तो कभी पांच महीने में चुकाते थे।
ठीक चार साल बाद सितंबर 2013 में मैं अमर उजाला पिथौरागढ़ चला गया। हमारे फोटोग्राफर साथी विपिन गुप्ता ने मुझे इसाई परिवार में मनोज एलेक्जेंडर 'गुड्डू' अंकल के घर में कमरा दिलाया। 1000 रुपये किराया तय हुआ। मेरे पास किराए के कमरे में रहने के लिए कोई भी साजो सामान नहीं था। क्योंकि मैं दो जोड़ी कपड़े कच्छा-बनियान, टूथब्रैश, पेस्ट आदि बैग में डाकलर ही पिथौरागढ़ चला गया था। खैर, मकान मालिक ने दूसरे कमरे में ठहराया। बोले- जब तक सामान नहीं ले आते, निसंकोच यहां रहो। सुबह हुई- दरवाजे पर नानी ने लॉक किया- बोली, चाय पी लो..। दरअसल, अंकल के बच्चों की नानी साथ रहती थी। प्यार से मैं भी उन्हें नानी बुलाया करता। थोड़ी देर में अंकल ने नाश्ते के लिए अपने ड्राइंग रूम में बुला लिया। मैं बड़े संकोच के साथ छह रोटी खा गया। क्योंकि अंकल बेटा संकोच न करो कहकर, थाली में रोटियां जबरन डाल देते। इतने में अंकल बोले- शाम को खाना बनाकर रखेंगे? अंकल नहीं, रात को मैं बाहर से खाकर लौटूंगा, कहकर मैंने प्रतिक्रिया दी। खैर यह सिलसिला 20-22 दिन चला।
बाद में अमर उजाला ने इंटरव्यू के लिए मुझे हल्द्वानी बुलाया। तब हल्द्वानी से लौटने के बाद अपने सामान के साथ मैं पिथौरागढ़ गया। 14 मई 2015 तक करीब पौने दो साल मैं पिथौरागढ़ रहा। इस दौरान जब भी क्रिसमस या बच्चों का जन्मदिन पड़ता, स्पेशल केक मेरे कमरे में पहुंच जाता। महीने में जब मैं घर आने के बाद पिथौरागढ़ लौटता तो उस दिन मुझे खाना नहीं बनाना पड़ता। नानी उस शाम रोटी-सब्जी की थाली लेकर मेरे दरवाजे पर आ जाती।
अंकल जी के घर की क्यारियों से मूली, लाई, धनियां, कद्दू, मटर खूब झूले रहते। अंकल-आंटी अक्सर कहते, बेटा- कभी खाने का मन हो तो सब्जी तोड़ लिया करो। खैर- मैंने सब्जी तो कभी नहीं तोड़ी, लेकिन पौने दो साल का समय बड़े प्यार और अपनेपन से बीता।
मई 2015 में मैं हिन्दुस्तान हल्द्वानी में आ गया। शुरुआत के छह महीने मामा लोगों के साथ रहा। नवंबर 2015 में दोनहरिया के पास किराए का कमरा लिया। बातों बातों में मकान मालिक से परिचय हुआ और पता चला कि वह हमारे धौलादेवी ब्लाक के भनोली की तरफ के रहने वाले हैं। जानकर अपनापन जैसा फील हुआ। लगा अपने ही पहाड़ी लोग हैं, अच्छी निभेगी। पर हुआ कुछ और। धीरे धीरे लगने लगा शहरों में आ बसे लोग अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज और सामाजिकता गांव में ही छोड़ आए हैं। कभी लगा ही नहीं कि हरेला, घुघुतिया, बिखौती, फूलदेई जैसे त्योहार भी आए हों। सच बताऊं तो मैं भी इन त्योहारों को भूलने जैसा लगता। कमरे और आसपास गली से गुजरते हुए कभी भी पकवानों की महक नथूलों में नहीं घुसी। ध्याड़ी और पिथौरागढ़ की तरह त्यार-ब्यार में पूड़ी, हलवा और कभी नक-भल (अच्छे बुरे) में खाना मिलना तो मेरी कल्पना में ही नहीं आया।
घर में इजा और बच्चों से फोन पर बात करने पर पता चलता कि कल-परसों में फला त्यार (त्योहार) गुजर गया। इजा कहती- ‘त्वेलि चुपड़ि रवाट खाई न? पोरू बिसुवक त्यार छि’ अर्थात तूने घी लगी रोटियां खाई की नहीं, परसों बिसुवत संक्राति का त्योहार था। कुमाऊं में मान्यता है कि बिसुवत संक्रांति के दिन घी लगी रोटियां खाने से विष नहीं लगता।
अब कमरे के किराए पर आता हूं- एडंवास किराया देने पर मकान मालिक ने मेरे नाम से कमरा चढ़ा दिया था। महीना पूरा हुआ ही था कि बालकनी में फूलों पर पानी डालते मकान मालिक ने डियर सुनो क्या नाम है आपका कहकर आफिस जाते जाते टोक दिया। मैंने कहा- अंकलजी नमस्कार गणेश नाम हैं मेरा। बोले- याद है, क्या तारीख है आज? मैं बोला- 14. कहने लगे किराया नहीं दिया आपने। सहमते हुए मैं बोला, अंकल आज ही से तो महीना शुरू हुआ है, बीते महीने का किराया मैं आपको एडवांस दे चुका है। कहते लगे- ‘आपको हर महीने एडवांस किराया देना होगा। इधर महीना शुरू, उधर किराया हाथ में। वो क्या है ना सिस्टम बनाने की बात है, जैसी आदत डालोगे वहीं सिस्टम बन जाएगा। मेरे लिए भी अच्छा आपके लिए भी..’। मैं बोला अंकल ठीक है, पर इस महीने थोड़ी दिक्कत है अगले महीने से एडंवास दे दिया करूंगा। तपाक से बोले- तब तो दो महीने का किराया दोगे। एक बीतने वाले महीने का एक आने वाले का.. खैर, तबसे एडवांस किराया ही देते आया हूं..
और भी बहुत सारी बातें हैं जिसने मुझे सोचने पर मजबूर किया। सोच रहा हूं क्या शहरों में आ गए लोग अपने तीज त्योहार भूल गए हैं? क्या शहरों में रहते लोग एक दूसरे से त्योहारों की खुशियां बांटना जरूरी नहीं समझते? क्या हम अपने सामाजिक और मानवीय मूल्यों को भुलाते जा रहे हैं? इतना अकेलापन क्यों? समाज क्यों टूट रहा है? क्यों पनप रही हैं दूरियां? भौतिकतावाद कहीं जरूरत से ज्यादा हावी तो नहीं हो रहा? आपके पास इनके जवाब या फिर कोई अनुभव हो तो जरूर साझा करें।
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