Saturday, 6 May 2017

वो पेड़ और काफल से भरी जेबें..

इंडियन कुक्कू (काफल पाक्को)
गांव से 140 किमी दूर हल्द्वानी में रोज की तरह सोया था। सुबह उठकर नित्य क्रिया करने के बाद खाना बनाने की जुगत में लग गया। यही कोई 8 से 8:30 बजे के बीच का समय होगा। अचानक कान में एक आवाज पड़ी। एकाएक विश्वास नहीं हुआ। दूबारा सुना तो मैं समझ गया कि यह वही आवाज है जिसे हम गांव में अप्रैल, मई के महीने सुना करते थे। काफल पाक्को.. काफल पाक्को..। जब भी यह आवाज सुनाई देती भाई बहन एक दूसरे से कहते देख भैया काफल पक गए.. चिड़िया बोल रही है। फिर क्या था हम निकल पड़ते, घर के आसपास काफल की तलाश में। काफल नहीं पके होने पर ऐसे एक पेड़ से दूसरे पेड़ दौड़ लगाते, जैसे कोई चिड़िया फुर्र कर एक से दूसरे पेड़ उड़ जाती है। कहीं न कहीं काफल मिल ही जाते। छोटी उमर में बड़े पेड़ों पर चढ़ना मुमकीन नहीं होता था। छोटे पेड़ों पर ही चढ़ जाया करते। बड़े पेड़ों में एक दूसरे को कंधे का सहारा देकर पेड़ में चढ़ाने का प्रयास करते। 
काफल
क्या दिन थे वो। मां डांटती की पेड़ों में मत जाना गिर जाओंगे। पर हम कहां मानने वाले थे। धीरे धीरे इतने माहिर हो गए कि बड़े बड़े पेड़ों में चढ़ जाया करते। लाल-काले काफल क्या खूब खाते। कई बार तो काफल गले तक भर जाते। घर आने पर मां खाना खाने को कहती। कहते इजा भूख ही नहीं है, मां झट समझ जाती। आ गए दोनों भाई काफल खाकर। तब जेब से मुठ्ठी में काफल भरकर मां को भी काफल दिया करते। काफल क्या देते, मां हम पर भी बरस पड़ती। कहां जेब में काफल लाया है, पैंट में दाग लग जाएगा। मैं नहीं धोऊंगी। बड़ी मुश्किल से इजा को मनाते।
अरे ये क्या! काफल पाक्को की आवाज ने तो मुझे गांव पहुंचा दिया। बचपन याद दिला दिया। कई सालों बाद मैंने हल्द्वानी में काफल पाक्को की आवाज सुनी थी। एकाएक सुनकर विश्वास नहीं हुआ। गाड़ियों के शोर के बीच शहरी आवोहना में काफल पाक्को की आवाज सुनकर जहां मैं अचंभित था, वहीं एक संतोष भी मुझे मिला। लगा आवाज मुझे गांव बुला रही है और कह रही है कि आ फिर लौटे सुनहरे बचपन की तरफ। वो पेड़ और काफल से भरी जेबें..

2 comments:

  1. काफल पाक्को एक पहाडी भसा है ।।

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    1. पहाड़ी भाषा कैसे मैं नहीं समझा.. मैंने तो इसे चिड़ियां की आवाज के रूप में समझा है। बुजुर्गों को कहते सुना है कि यह चिड़ियां हमें काफल के पकने की सूचना देती है...

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