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घरों में टोकरियों में बोया गया हरेला। |
सांस चढऩे से हांफते हुए कहतीं- नातियो, बैठ, त्वे हरया्व पूजि दियो। नान् का छै? भिडऩ् न ऊकइन इजा, कि पत् अघिलै छौ-न्हात्यो। तेरि मै हरया्व पुजि गै न? कहते हुए आमा फफक कर रो पड़ती। मैंने हरेले के आशीष वचन पहली बार आमा से ही सुने थे। आमा आशीष तब देती थी, उसका अर्थ आज जाकर समझ पाया हूं। आमा तूने ही तो बताया कि पहला हर्याला गोलज्यू और गंगनाथ ज्यू को चढ़ाया जाता है। और भी बहुत बातें हैं आमा, फिर कभी बतियाऊंगा.. अभी हरेले के आशीष पर आता हूं-
लाग हरिया्व, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये, यो दिन-मास भेटनैं रये, दुब जस पंगुरिए, पाति जस हऊरिए, स्याव जस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, धरती चार चकाव, अगासाक चार उकाव है जये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंगा ज्यू में पांणि छन तक, सिल पिसी भात खाये, जांठ टेकी झाड़ जाए..
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टोकरी में हरेला। |
यह वह आशीष वचन हैं, जो कुमाऊं अंचल में हरेले के दिन घर के बड़े सदस्य सात अनाजों की पीली पत्तियों (हरेले के तिनड़ों) को बच्चों, युवाओं के सिर में रखते हुए देते हैं। इन ठेठ कुमाऊंनी आशीष में त्रेता युग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान श्रीराम को दी गईं आकाश की तरह ऊंंचे होने और धरती की तरह चौड़े होनेÓ की आशीष का भाव भी है। घर से दूर रहने वाले परिजन को चि_ी से हरेले के तिनके भेजने का चलन था, सुंदर शहर में रहने वाला व्यक्ति बड़े भाव से इन तिनकों को शिरोधार्य करता। संचार के आज के युग में अब यह गुजरे जमाने की बात हो गया है।
तीन हरेले मनाने की परंपरा
कुमाऊं में वर्ष में तीन बार, चैत्र माह के प्रथम दिन, श्रावण माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाड़ माह में और आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है। इसी प्रकार नौ दिन बाद चैत्र माह की नवमी, श्रावण माह के प्रथम दिन और दशहरे के दिन काटा जाता है। श्रावण का हरेला शिव को समर्पित माने जाने वाले श्रावण मास की संक्रांति को मनाया जाता है। सूर्यदेव इसी दिन दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं।
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हल्द्वानी के एक स्कूल में हाथों में हरेला लिए बच्चे। |
हरेले के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत, कौंड़ी, मादिरा, धान और भट्ट आदि के बीज का प्रयोग होता है। घर के भीतर पवित्र जगह में खासकर मंदिर के पास रिंगाल की टोकरियों या लकड़ी के बक्सों में बोया जाता है। जितने बीज लिए जाते हैं उसे उतने ही परतों में बोया जाता है। हरेला बोने के लिए साफ-सुथरी जगह से मिट्टी लाई जाती है। सुबह-शाम पूजा के बाद हरेले में पानी का छिड़काव किया जाता है।
अंधेरे में होता पल्लवित
हरेले की खास बात है कि इसे अंधेरे कोने में रखा जाता है। धूप नहीं मिलने से पौधे पीले तिनकों के रूप में दिखते हैं। पीला रंग परिपक्वता का प्रतीक माना गया है, शायद इसीलिए हरेले को अंधेरे कोने में रखा जाता है। 10वें दिन यानी संक्रांति को इन्हें घर का बुजुर्ग सदस्य या महिला काटती है। घर के मंदिर, गांव के इष्ट के बाद परिवार के सदस्यों को पूजा जाता है।
प्रकृति और खेती से जुड़ाव
माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। सूर्य की रोशनी के बगैर विपरीत परिस्थितियों में पल्लवित हुआ हरेला संघर्ष में बेहतर पनपने की प्रेरणा देता है। हरेले को अच्छी कृषि उपज, हरियाली, धनधान्य, सुख संपन्नता से भी जोड़ा जाता है।
पौराणिक मान्यता भी है जुड़ी
हरेले को लेकर पौराणिक मान्यता भी हैं। कहा जाता है कि देवी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था। इसलिए वह अनाज के पौधों यानी हरेले के रूप में गौरा रूप में अवतरित हुईं। हरेले को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस दिन शिव पार्वती की पूजा का प्राविधान है।
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हल्द्वानी में हरेले की पूजा करती आमा। |
हरेले की पहली शाम डिकारे बनाने का प्राविधान है। सामान्यतया लाल मिट्टी से शिव, गौरा और गणेश जी की प्रतीक बनाए जाते हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। कुछ जगह केले के तने, भृंगराज आदि से भी डिकारे बनाने का चलन है। इन्हें वनस्पतियों के प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। शिव सामान्यता नीले तथा गौरा सफेद बनाई जाती हैं।
मानव को प्रकृति से जोड़ता है हरेला
हरेला जिस जिस टोकरी में बोया जाता है वह धरती का स्वरूप है। हरेला जितना सुंदर होगा, धरती भी उसी तरह हरी-भरी रहेगी। संस्कृति कर्मी और लेखक जुगल किशोर पेटशाली बताते हैं, हरेला अच्छा हो इसी कामना से काटने से पहले अगली शाम उसकी गुड़ाई होती है। तिलक लगाकर पूजा जाता है तो रक्षा तागे से लपेटा (सुरक्षित करना) जाता है। मानव को प्रकृति से जोडऩे की यह अद्भुत परंपरा बुजुर्गों के समय से चली आ रही है।
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