Tuesday, 25 August 2020

बहनों के हुनर ने तैयार की आत्मनिर्भरता की राह, हाथ से तैयार उत्पादों की ऑनलाइन आ रही डिमांड

हौसले बुलंद और इरादे नेक हों तो कामयाबी जरूर मिलती है। हल्द्वानी की रहने वाली बहनें गरिमा और उमा ने कामयाबी के इस सूत्र को सही साबित किया है। अपने हुनर की बदौलत दोनों बहनें क्राफ्ट व पेंटिंग वर्क से पहचान बना रहीं हैं। बड़ी बहन हैंड मेड ग्रीटिंग कार्ड, पेंसिल स्कैच व ऐपण पेंटिंग तैयार करती है और छोटी क्राफ्ट व डिजिटल आर्ट के फन में माहिर है। दोनों ने अपने हुनर को स्वरोजगार का माध्यम बनाया और आॅनलाइन कारोबार में जुट गईं। पेंटिंग व क्राफ्ट में ऐपण का समावेश लोग खूब पसंद कर रहे हैं।

हल्द्वानी के गौजाजाली की रहने वाली गरिमा अधिकारी हरड़िया (26) ने बायोटेक से एमएससी किया है। बहन उमा अधिकारी (24) बीएड की पढ़ाई कर रही हैं। गरिमा ने 2016 में शौकिया तौर पर हैंड मेड कार्ड बनाने का काम शुरू किया। चार-छह माह में ही काम जंच गया और अधिकारी क्राफ्ट वर्क की शुरुआत की। खुद के बनाए कार्ड फेसबुक और स्ट्राग्राम पर डालने लगीं। लोगों को यह पसंद आने लगे और ऑनलाइन डिमांड भेजने लगे। यहां से गरिमा के दिमाग में वोकल फॉर लोकल का आइडिया क्लिक कर गया। 2018 में उमा भी इससे जुड़ी तो ताम में वैरायटी आ गई। 

नौकरी छोड़कर खुद का काम आगे बढ़ाया
गरिमा की शादी हो चुकी है। अब वह कुसुमखेड़ा में रहती हैं। एक ही शहर में होने से दोनों बहनों को काम करने में सहूलियत होती है। गरिमा बताती हैं उन्होंने दो साल दिल्ली में जाॅब की। काम नहीं जमा तो हल्द्वानी लौट आई और अपने काम को गति देने की ठानी। वह कहती हैं लोग सस्ती चीजें पसंद करते हैं, लेकिन हैडमेड होने से कई लोग अच्छी कीमत देने को तैयार रहते हैं। ग्राहकों के रिव्यू, फीडबैक पेज पर डालती हैं। जिससे काम का प्रचार भी अच्छे से हो जाता है। दिल्ली, देहरादून, गाजियाबाद से लोगों की डिमांड आ रही है। 

ये तैयार करती हैं अधिकारी बहनें
दोनों बहनें शादी, नामकरण, सालगिरह आदि के लिए हैंडमेड कार्ड, एक्सक्लोजन बाॅक्स, ग्रीटिंग कार्ड, ऐपण आधारित पेंटिंग, पेंसिल स्कैच, डिजिटिल पोट्रेट आदि तैयार करती हैं।

Sunday, 19 July 2020

उम्‍मीदों के 'भास्‍कर' का उदय : बागेश्‍वर की घाटी में 40 साल बाद गूंजे हुड़किया बौल के स्‍वर

रोपाई के बीच हुड़किया बौल लगाते भास्‍कर। बागेश्‍वर की घाटी
में 40 साल बाद यह दृश्‍य दिखे हैं।

उत्तराखंड में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही है। हुड़किया बौल इसमें प्रमु ख है। खेती और सामूहिक श्रम से जुड़ी यह परंपरा सिमटती कृषि के साथ ही कम होती चली गई। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि अधिकांश इलाकों में हुड़किया बौल की परंपरा समाप्त हो चुकी है। आज हुड़किया बौल गायकी वाले कलाकारों को खोजना मुश्किल है। ऐसे मुश्किल समय में बागेश्वर जिले के 22 वर्षीय भास्कर भौर्याल ने हुड़किया बौल परंपरा के साथ आंचलिक लोक गायकी की एक विधा को जीवंत करने का बीड़ा उठाया है। बागेश्वर के रीमा क्षेत्र में 40 साल बाद सुनाई दे रहे हुड़किया बौल के बोल सकारात्मक बदलाव की उम्मीद जगा रहे हैं। भास्‍कर ने समाज को उम्‍मीद का नया सूरज दिखाया है।

बागेश्वर जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर कुरौली गांव के रहने वाले भास्कर सोबन सिंह जीना कैंपस अल्मोड़ा से फाइन आर्ट की पढ़ाई कर रहे हैं। मां जानकी देवी आंचलिक लोक गायकी की समृद्ध विधा मानी जाने वाली न्योली गाती थीं। बचपन से मां को सुनते हुए भास्कर को भी इसका शौक पैदा हो गया। इस शौक ने भास्‍कर के हाथ में हुड़का ला दिया। उत्‍तराखंडी लोक संस्‍कृति को समझने वालों के लिए हुड़का किसी परिचय का मोहताज नहीं है। पढऩे व कविता रचने के शौकीन भास्कर ने इंटरनेट पर अपनी लोक गायकी के बारे में पड़ा। भास्कर बताते हैं कि हाथ में हुड़का लिए बुजुर्ग के साथ स्वर से स्वर मिलाते हुए सामूहिक रूप से धान की रोपाई लगाने की कल्पना ने इसे सीखने की जिज्ञासा जगा दी। बचपन में मां के साथ पास के गांव में अपने ननिहाल गए थे। वहां एक बुजुर्ग कलाकार धर्म सिंह रंगीला से मिलना हुआ। रंगीला हुड़किया बौल के गाते थे। भास्‍कर ने उनसे हुड़क‍िया बौल की बारीकी समझी। गीतों के बोल, गाने की लय पकड़ने के लिए वह अक्‍सर ननिहाल चले जाया करते। ननि‍हाल में नाना-नानी, मामा-मामी के साथ कम पड़ोस के रंगीला बूबू के साथ अधिक समय बीतता। तीन साल पहले रंगीला बूबू का निधन हो गया। तब तक भास्कर ठान चुके थे कि इस परंपरा को अब वह खुद आगे बढ़ाएंगे।


यह है हुड़किया बौल

हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई व मडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं। पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है। फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं। हुड़के को थाम देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं। हुड़के की गमक और अपने बोलों से कलाकार काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है।

महिलाओं में उत्‍साह भरते हुए भास्‍कर

जो मैं कर रहा हूं उसे सभी को करना चाहिए : भास्‍कर

युवा बौल गायक भास्‍कर भौर्याल कहते हैं कि कुमाऊं के लोक का अतीत अत्यंत समृद्ध रहा है। यहां लोक गीतों के ही कई आयाम हैं। लोकगीतों को इतने सलीके से तरासा गया है कि इनमें जीवन का सार दिखता है। पेशेवर बौल गायकों के बराबर मैं कभी नहीं जा सकता, मगर अपनी पुरातन विरासत को संरक्षित करने और उसे नई पीढ़ी तक ले जाने का प्रयास सभी को करना चाहिए। मैं यही कर रहा हूं। भास्‍कर के यह शब्‍द उम्‍मीद जगाते हैं। भास्‍कर के जज्‍बे का सलाम।

हुड़किया बौल के स्वर

सेलो दिया बिदो हो भुम्‍याल देवा
दैंणा है जाया हो खोई का गणेशा
देवा ज्‍यू वर दैंण ह्वे जाया ।
दैंणा है जाया हो मोरी नरैणा
दैंणा है जाया हो पंचनाम देवा
सेवाे दिया बिदो हो भुम्‍याल देवा।


Monday, 13 July 2020

न समझा कोई मेरा वजूद, अब तो पन्‍ने से स्याही छूटने को आतुर...

'बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो, ऐ काश हमारी आंखों का इक्कीसवां ख्वाब तो अच्छा हो।' शायर गुलाम मोहम्मद कासिर का ये शेर किताबों की एहमियत बतलाता है, मगर अपने शहर को शेर-ओ-शायरी के अलफाज, किताबों की उपयोगिता कहां समझ आती है। कम से कम यहां के प्रतिनिधि, प्रशासनिक अफसर तो इसे नहीं समझते। समझते तो शहर में 'नो शाॅपिंग माॅल, सेव लाइब्रेरी' के नारे न गूंजते। यूपी के पहले मुख्यमंत्री रहते हुए पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने 15 अक्टूबर 1953 को शहर के बीचोंबीच जिस लाइब्रेरी की आधार शिला रखी थी, उस जगह पर शाॅपिंग माॅल खड़ा करने की बात न चलती। शहर के दुर्भाग्य से पिछले कुछ दिनों से यही हो रहा है।

रोडवेज स्टेशन से लगी गोविंद बल्लभ पंत लाइब्रेरी किसी दौर में किताबों के कद्रदानों का ठिकाना थी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले नौजवान, साहित्यप्रेमी बुजुर्ग यहां आना नित्य कर्म समझते। अनदेखी ने इसे 'अनाथ' बना दिया। 2006 में तत्कालीन पालिकाध्यक्ष हेमंत बगड़वाल ने लाइब्रेरी के जीर्णोद्धार कार्य का शिलान्यास किया। दो साल बाद तब की पालिकाध्यक्ष रहीं रेनू अधिकारी ने लाइब्रेरी पुनः शहर को अर्पित की। स्वरूप बदला, लाइब्रेरी की जगह बढ़ी, पर किताबें सीमित होती चली गईं। आज स्थिति यह है कि लाइब्रेरी की शीशे की अलमारी में बंद चंद किताबें हाथों में आने को छटपटा रही हैं। कमरे का ताला साफ-सफाई के लिए ही खुलता है। गैलरी में लकड़ी की अलमारियां दीवार की तरफ मुंह किए खड़ी हैं। खाली अलमारी की तरफ जब कोई झांके न तो मुंह फेर लेना लाजिमी है। हो सकता है उन्हें खुद पर शर्मिंगदी आती हो..।

दीवार पर लाइब्रेरी के खुलने का समय मोटे अक्षरों में दर्ज है। सुबह आठ से दस, शाम चार से आठ बजे तक लाइब्रेरी खुलती है। यह ऐसी लाइब्रेरी है जहां पढ़ने के लिए पुस्तक साथ लानी होती है। हां, यहां बैठने के लिए चंद कुर्सियां और मेज जरूर उपलब्ध है। पंखा बेशक नहीं है, मगर पंखे की हवा से किताब के पन्ने पलट न जाएं इसके लिए पत्थर के टुक्कड़ों के पेपर वेट जरूर मिल जाएंगे। शहरवासियों को अपने आसपास, देश-दुनिया की ताजा खबरों से अवगत कराने के लिए समाचार पत्र जरूरी होते हों, मगर यहां अखबारों के नाम पर दो दशक पुरानी 'रद्दी' पोटलियों में बंद है। लाइब्रेरी की ऐसी बदहाली पर किसी को भी तरस जा जाए।

बावजूद इसके यहां स्‍कूली बच्‍चों का आना होते रहा है। अभी भले कोरोना काल है, मगर जब कोरोना नहीं था और लाइब्रेरी के बराबर के प्रेस क्‍लब दफ्तर में यदा-कदा हम बैठे हुआ करते तो कई बच्‍चे पूछने आ जाते कि लाइब्रेरी कहां है, कितने बजे खुलती है जैसे सवाल लेकर। मुझे याद है कि हमारे साथी भुपेश कन्‍नौजिया और मैंने लाइब्रेरी के दरवाजे पर लिख दिया था 'लाइब्रेरी इधर है।' बाकायदा ऐराे भी बना दिया। उस पर लाइब्रेरी खुलने का समय भी दर्ज कर दिया। बहरहाल, हुक्मरानों को इसे समझना होगा। शायर आदिल मंसूरी ने आगाह किया है- 'किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को, कागज बिखर रहे हैं पुरानी किताब के।'
-गणेश पांडे

Wednesday, 29 April 2020

कोरोना महामारी और दाढ़ी

दो-तीन दिनों से बच्ची के स्कूल से मैसेज आ रहे थे। लॉकडाउन में कुछ दिनों से जो असाइनमेंट दिया जा रहा था अब उसे फेयर नोटबुक में किया जाना है। हालांकि स्कूल रियायत दे रहे हैं कि शहर से बाहर होने पर यह कंपलसरी नहीं है। पिछले 2 दिनों से स्टेशनरी की दुकान भी खुल गई हैं। मालूमात करने की मंशा से स्टेशनरी की दुकान की तरफ चल दिया। बुक सेलर की दुकान पर पहुंचा। मुंह पर मास्क और सिर पर हेलमेट। दाढ़ी मास्क से बाहर झांक रही थी। मानो बाहर का माहौल देखने की लालसा थी उसकी। मुझे कतार में देख दुकानदार भयभीत हो गया। देखिए! आप दूर-दूर रहिए। इस तरह मैं किताबें नहीं दे पाऊंगा। आप इधर से (दूसरी और इशारा करते हुए) लाइन में लगिए। उसकी आवाज में बौखलाहट थी। जिस ओर उसने इशारा किया था उस तरफ कोई लाइन नहीं थी। हमारे बराबर की पंक्ति में खड़ी महिलाओं की निगाहें मुझे अचरज से देख रही थी। मैं सकपकाया। अपने कदम थोड़ी पीछे सरका लिए। तभी मेरे पीछे खड़े सज्जन बोल पड़े, आप ठीक तो खड़े हो। उनके शब्दों ने मुझे थोड़ी हिम्मत दी। 

प्रतीकात्मक चित्र

अब तक मैं मामले को समझ चुका था। मैंने किसी लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघा था। यह दोष दुकानदार का भी न था। पंक्ति में खड़ी महिलाओं की निगाह ने भी कोई अपराध नहीं किया था। निगाहों का तो काम है। आकर्षक और विचित्र जगह पर वह स्वस्फूर्त चली जाती हैं। आंखों की प्रकृति और प्रवृत्ति भले ऐसी हो, मगर इंसान की प्रवृत्ति कभी ऐसी न थी। हमारा सामाजिक ताना-बाना भाईचारे और इंसानियत के इर्द-गिर्द बुना गया है। खैर, यह उस मानसिकता की साजिश थी, जिसने कोरोना महामारी को धार्मिक जामा पहनाने की गैर मजहबी हिमाकत की। अरे भैया! आगे बढ़ो। पीछे खड़े सज्जन की आवाज ने मुझे कल्पना की दुनिया से यथार्थ में लौटा दिया। अरे सॉरी कहता हुआ मैं आगे बढ़ा। दुकानदार ने बच्ची का नाम और क्लास पूछी। मिताली पांडे, क्लास फस्ट सुनकर उसने मेरे चेहरे की तरफ देखा। इस बार उसकी आंखों में डर नहीं था। शायद वह कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से संक्रमित होने से बच गया था। मैं भी राहत महसूस करने लगा था कि किसी गलतफहमी और पूर्वाग्रह का शिकार होने से बच गया। दाढ़ी की वजह से उपजे विवाद से स्वर्गीय बाबूजी याद आ गए। बाबू शायद कह रहे थे बेटा वार्षिक श्राद्ध में बस एक महीना रह गया है। फिर तू किसी गलतफहमी का शिकार न होगा। बाबूजी का पुण्य स्मरण।
(गणेश पांडे)

Saturday, 18 April 2020

लॉकडाउन की मुश्किलों से लड़ रही जगन्नाथ की तीन पीढ़ी

चुनौतियां आती हैं। घबराने के बजाय मजबूती से उनका सामना करना होता है। धैर्य व साहस दिखाने की जरूरत होती है। कोरोना के खतरे व लॉकडाउन की चुनौती से जगन्नाथ की तीन पीढिय़ां मजबूती से सामना कर रही हैं। तमाम मुश्किलों के बीच जिंदगी जीने की जिंदादिली तारीफ योग्य है।
हल्द्वानी सब्जी मंडी ही जगन्नाथ की दुनिया है। तीन जनों की तीन पीढिय़ां उनकी धरोहर और फटे जूते-चप्पल को रफू करने के औजार और उन्हें रखने का संदूक उनकी संपत्ति है। आप सही समझे। जगन्नाथ चाचा मोची का काम करते हैं। बेटा बंटी काम संभालने लायक हुआ तो खुद मंडी में अनाज-सब्जी के कट्टे गाड़ी में उतारने-चढ़ाने का काम करने लगे। लॉकडाउन में सब तरफ सन्नाटा पसरा है। सब्जी लदे रिक्शे के चैन की कर्र-कर्र और कुछ कदमों की आहट सन्नाटा तोड़ती हैं। पेड़ के नीचे फड़ लगाकर लेटा बंटी किसी आहट पर बैठ जाता है। इधर-उधर नजर दौड़ाई और किसी को अपनी तरफ न आता देख पिता जगन्नाथ व बेटे कृष्णा के साथ पसर गया।


मेरी मोटरसाइकिल पास रुकते जानकर बंटी फिर चौकन्ना होकर बैठ गया। भैयाजी! क्या सिलवाओगे। उसकी आवाज में दर्द है। टोह लेने की मंशा से मैंने पूछा कैसा चल रहा काम? कुछ देर की खामोशी तोड़ते हुए वह बोला काम क्या चलना। बस बैठे हैं। बंटी अब तक समझ गया था कि मुझे कुछ सिलाना नहीं है। मुझे थोड़ा हमदर्द बनता जानकर बंटी बोला, आदमी घरों से निकल नहीं रहा। चलना-फिरना बंद है। फिर काम कहां से होगा। तो फिर खाना? अभी इंसानियत जिंदा है। दिन में कुछ लोग आते हैं भोजन के पैकेट बांटने। रात को क्या खाते हैं? बोला, दिनभर में दस-बीस आ जाता है उससे आटा-चावल लेकर कुछ बना लेते हैं। घर किधर है? आढ़त पर। मतलब? भैया! इधर ही दुकान की आढ़ में सो जाते हैं। पिछले चार-पांच साल से यही अपना घर है। पहले कहां रहते थे? राजपुरा में अपना छोटा मकान था। पत्नी पेट से थी। बीमार हो गई, न बेटी बची न पत्नी। इलाज के लिए घर बेचना पड़ा।
तमाम दु:खों के बावजूद बंटी की जिजीविषा कम नहीं। वह उम्मीदों में जीता है। फुटपाथ पर रखे औजार के बॉक्स पर उसने अपने लाड़ले कृष्णा का नाम उकेरा है। कहता है उसकी मां ने कृष्णा को यह नाम दिया था। बंटी के औजारों के बीच तिरंगा खड़ा है। 26 जनवरी को उसने कृष्णा के लिए इसे खरीदा था। हवा के झोंके से तिरंगा डगमग होता है तो बंटी उसे संभालने लगता है। कहता है परेशानी का समय हवा के झोंके की तरह होता है। कुछ समय धैर्य, साहस दिखाने की जरूरत है। सदा एक मौसम नहीं रहता तो परेशानी के दिन भी टल जाएंगे। बंटी का जज्बा उत्साह भरने वाला है।
(गणेश पांडे)

Thursday, 13 February 2020

कुमाऊं के होली गीतों में बखूबी झलकता है वसंत


ब्रज की तरह कुमाऊं की बैठकी होली की परंपरा काफी समृद्ध व निराली है। यहां की होली में देवी-देवताओं की स्तुति, आह्वान है तो देवर-भाभी के बीच की हंसी-ठिठोली भी। पौष के पहले रविवार से चरणबद्ध रूप से बैठकी होली गाई जाती है। शुरुआत निर्वाण की होली से होती है। यह एक तरीके से किसी शुभ कार्य से पहले गणेश पूजन जैसा होता है। 'सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन, होली खेले गिरजापति नंदन..।'  शब्द स्वत: भान करा देते हैं कि श्रीगणेश का वंदन हो रहा है। वसंत पंचमी के बाद जब प्रकृति शृंगार करते हुए यौवन रूप धरने लगती है तो होली गीतों में इसकी झलक खूब दिखती है। हरियाली ओढ़े प्रकृति के बीच खिले रंग-बिरंगे फूलों को देख हर्षित युवती अपनी सखी से कहती है- 'आयो नवल वसंत सखी ऋतुराज कहावे, पुष्प कली सब फूलन लागे फूल ही फूल सुहावे..।' वसंत के माधुर्य में कृष्ण-गोपियों के बीच की अटखेली बड़ी सुंदरता से कुमाऊं के होली गीतों में प्रतिबिंबित होती है। 'आयो वसंत लागी होरी, कृष्ण बजावै गोपी गावै..।' बुजुर्गों के साथ नवअंकुर होल्यार जब राग-रागिनी पर आधारित होली गीतों के सुर गुनगुनाते हैं तो देखने-सुनने वाला तक होली की रंगत में डूबने लगता है।



महाशिवरात्रि से फिल बदलेगा ढब
महाशिवरात्रि के पर्व से बैठकी होली एक चरण आगे बढ़कर देवी-देवताओं की आराधना का रूप लेने लगती है। होल्यारों की बढ़ती संख्या के साथ हंसी-ठिठोली व राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ वाले गीत गाए जाएंगे। रंगभरी एकादशी से रंग खेलने के साथ खड़ी होली का क्रम शुरू होने लगता है।



कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभाव
कुमाऊं में होली का प्रारंभ दसवीं-ग्यारहवीं सदी में माना जाता है। कुमाऊं की होली पर शोध करने वाले डॉ. पंकज उप्रेती बताते हैं टिहरी व श्रीनगर शहर में कुमाऊं के लोगों की बसासत व राजदरबार होने से होली का वर्णन मौलाराम की कविताओं में आता है। पंडित लोकरत्न पंत 'गुमानी' की रचनाओं में भी होली के गीत हैं। कुमाऊं की होली के काव्य स्वरूप में विस्तृत भाव भरा हुआ है। कुमाऊं व दरभंगा की होली में अनोखा सामंजस्य है। कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभाव भी इसमें पड़ा। अनामत अली उस्ताद ने होली गायकी को ठुमरी के रूप में सोलह मात्राओं में पिरोया।

वसंतोत्सव का वृहद स्वरूप है होली
डॉ. उप्रेती होली को वसंत के आगमन पर होने वाले उत्सव का वृहद स्वरूप मानते हैं। वह बताते हैं 'बाल नक्खत' जैसे मूर्ख सम्मेलन का उल्लेख प्राचीन साहित्य में है। गांव के लोग समूह में मुख रंगाये हुए, गोबर, कीचड़ से सने घर-घर घूमकर अपनी इच्छित वस्तु की मांग करते थे। नाग-वाकाटम काल में मदनोत्सव प्रचलित था। कामसूत्र में 'होलका' नामक उत्सव का उल्लेख मिलता है, जिसमें टेसू से बने रंगों को एक-दूसरे पर डालने का चलन था।


Wednesday, 22 January 2020

विवाह आमंत्रण के साथ 'अमन' और पर्यावरण संरक्षण का पैगाम


पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए कुमाऊं के एक परिवार ने शादी के कार्ड के साथ गमलों में लगे गुलाब के पौधे भेंट कर 250 लोगों को निमंत्रण भेजा है। गमलों में सजे बारोमासी गुलाब के फूल पर्यावरण संरक्षण का पैगाम देने के साथ सकारात्मक पहल की खुशबू बिखेर रहे हैं।ऊधमसिंह नगर जिले के खटीमा के रहने वाले 27 वर्षीय अमन अग्रवाल मारवाड़ी का विवाह चार फरवरी को होना है। दुल्हन ममता का परिवार भी खटीमा में रहता है। अमन बताते हैं छह माह पहले उनकी सगाई हुई। शादी के बहाने समाज को सकारात्मक संदेश देने की मंशा थी। पहले सीड पेपर पर कार्ड प्रिंट करने का विचार आया। बाद में पौधे भेंट करने का प्लान किया और नर्सरी से बारोमासी गुलाब के पेपर बैग वाले गमले खरीद कर घर पर रख लिए। गमलों को आकर्षक रूप देने के लिए सिल्वर पेपर लपेट दिया। अमन के दोस्त रचित अग्रवाल घर-घर जाकर गमले के साथ स्नेह आमंत्रण दे रहे हैं।



मारवाड़ी भाषा में छपवाया कार्ड
मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले अमन के पिता रामानंद अग्रवाल खटीमा आकर बस गए। किराना की दुकान चलाने वाले पिता के आग्रह पर शादी कार्ड को मारवाड़ी भाषा में तैयार किया गया। बीटेक की शिक्षा लेने वाले अमन ग्राफिक डिजाइनर वकविता लेखन का शौक रखते हैं और पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्यरत हैं।

स्टूडेंट्स को अभियान से जोड़ा
अमन प्राइवेट स्कूल में शिक्षक होने के साथ खुद का कोचिंग संस्थान चलाते हैं। संस्थान के 250 स्टूडेंट्स ने एक-एक गमले की सिल्वर पेपर से पैकिंग की। अमन बताते हैं स्टूडेंट्स को जोडऩे का मकसद उनके मस्तिष्क में पर्यावरण की चेतना जगाना था।

गूगल को दे चुके सुझाव
अमन क्रिएटिविटी के लिए जाने जाते हैं। पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक 'मैती आंदोलन' पर दो साल पहले तैयार फेसबुक फ्रेम को काफी सराहना मिली। जिसके चलते जुलाई 2017 में अमन को गुडग़ांव स्थित गूगल आफिस में सोशल साइट व वेबसाइट से विज्ञापनों के जरिये आमदनी बढ़ाने पर सुझाव देने का मौका मिला था।

Monday, 9 December 2019

हल्द्वानी के विवेक ने पेंटिंग के जरिये बयां किया पलायन का दर्द

उत्तराखंड की पलायन की पीड़ा किसी से छिपी नहीं है। पलायन के चलते गांव के गांव खाली हो चुके हैं। वर्षों पहले ताले पड़ चुके मकान खंडहर में तब्दील हो रहे हैं। एक सर्वे के मुताबिक उत्तराखंड के 16793 गांवों में तीन हजार से अधिक गांव जनविहीन हो चुके हैं। इस सबके बीच नैनीताल जिले के विवेक भावनाओं व उम्मीद के रंगों के जरिये खाली होते गांवों के प्रति सुखद भविष्य की आस जगा रहे हैं। पहाड़ की जीवन शैली, एतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर को कैनवास पर उतार रहे विवेक देश-विदेश में रहने वाले प्रवासी उत्तराखंडियों के मन में पहाड़ की याद जगा रहे हैं, ताकि अपनी मिट्टी की खुशबू को महसूस करने वाले लोग किसी न किसी बहाने पहाड़ की तरफ लौटे। विवेक की पहल को सोशल मीडिया पर काफी सराहना मिल रही है।

ऐपण उकेरे पुराने घर जगाते हैं नराई
पलायन के चलते पहाड़ के घर खंडहर हो रहे हैं। नैनीताल के बेतालघाट के रहने वाले 25 वर्षीय विवेक बिष्ट 'विरंजन' की खंडहर घरों को दर्शाती पेंटिंग देश-विदेश में रहने वाले लोगों के मन में पहाड़ की नराई जगाते हुए अपने गांव लौटने की अपील करती है। ऐपण से सजी देहरी पर बैठे बुजुर्ग अपनों को बुलाते हुए कहते है कि मानों आपके बगैर घरों की रौनक गायब है।
 
वाटर कलर का प्रयोग
इलेक्ट्रिकल इंजीनियङ्क्षरग की पढ़ाई करने वाले विवेक ने सात साल पहले शौकिया तौर पर पेंटिंग बनानी शुरू की। बाद में इसे प्रोफेशन बना लिया। अब तक 300 से ज्यादा पेंटिंग बना चुके हैं। विवेक एतिहासिक धरोहरों के साथ कहानी, कविता के लिए चित्रों के जरिये बयां करते हैं।

चित्रकार विजय विश्वाल पसंदीदाविवेक को खुद की बनाई पेंटिंग बहुत पसंद है। कहते हैं कलाकार के लिए कोई पेंटिंग कम या अधिक उपयोग नहीं होती। वह हर चित्र को पूरे शिद्दत से उकेरता है। दूसरे चित्रकारों में विजय विश्वाल विवेक के पसंदीदा हैं।







Monday, 14 October 2019

रिटायर्ड आयकर आयुक्त के हाथों का हुनर, पेंसिल से उकेरते महापुरुषों के चित्र

इरादे अगर जवां हों तो मन में पल्लवित होते शौक के पूरा होने में ढलती उम्र भी बाधा नहीं बनती। जरूरत होती है तो केवल शिद्दत के साथ जुटने की। अगर जुट गए तो कारवां बढ़ते जाता है। डॉ. सतीश चंद्र अग्रवाल ऐसा ही नाम है। डॉ. अग्रवाल पेंटिंग बनाने के स्कूली दिनों के शौक को 66 की उम्र में साकार कर रहे हैं।
हल्द्वानी के नैनीताल रोड स्थित वैशाली कालोनी में रहने वाले अग्रवाल को स्कूली दिनों से पेंटिंग का शौक था। जब समय मिलता सादे कागज पर पेंसिल से महापुरुषों के रेखाचित्र बनाते। 1972 में एमबीपीजी कॉलेज से स्नातक करने के बाद एलएलबी की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चले गए। बाद में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और फिर नौकरी के चलते पेंटिंग का शौक कैनवास पर खुलकर नहीं उतर पाया। 2013 में आयकर आयुक्त पद से रिटायर्ड हुए डॉ. अग्रवाल अपने बचपन के शौक को अब पूरा करने में लगे हैं। वर्तमान में इनके पास सौ से अधिक पेंटिंग बनी हैं। कई पेंटिंग दूसरों को भेंट कर चुके हैं। डॉ. अग्रवाल की परिकल्पना पर बरेली रोड स्थित लटूरिया आश्रम में आकर्षक हनुमान झांकी तैयार की गई है।


पेंसिल, रबर का करते हैं प्रयोग
डॉ. अग्रवाल पेंसिल व रबर की मदद से स्केच तैयार करते हैं। उन्होंने पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, महात्मा गांधी, डॉ. अब्दुल कलाम, सरदार पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, आइंस्टीन, बिस्मिल्ला खां, जीबी पंत समेत कई महापुरुषों के अलावा नीम करौली महाराज, लटुरिया बाबा, महादेव गिरि जैसे प्रसिद्ध संतों के रेखाचित्र व मार्बल की मूर्तियां बताई हैं।

लाल बहादुर शास्त्री की बनाई पहली पेंटिंग
रामलीला मोहल्ले में डा. अग्रवाल का पुस्तैनी घर था। नजदीक के केमू स्टेशन के पास लाल बहादुर शास्त्री के चाचा सदगुरु शरण श्रीवास्तव रहते थे। वह एमबी इंटर कॉलेज में प्रवक्ता थे। 1968 में सदगुरु ने अग्रवाल की सुंदर पेंटिंग देखकर उनसे बाल बहादुर शास्त्री का चित्र बनाने को कहा। यहां से पेंटिंग का शौक जुनून में परिवर्तित हो गया।

कई काव्य संग्रह का प्रकाशन
साहित्य के प्रति रुचि के चलते अग्रवाल ने 1995 में मॉरिशस के ङ्क्षहदी साहित्य में शोध किया। चितवन, आकाश अपना-अपना काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा कई पत्रिकाओं का संपादन, जीवन लेखन कर चुके हैं।

Monday, 7 October 2019

पारंपरिक ऐपण कला में पेंटिंग विधा का समावेश, हल्द्वानी की अभिलाषा ने कुमाऊंनी ऐपण को दिया नया आयाम


कल्पनाएं सभी के मस्तिष्क में उभरती हैं, लेकिन उसे साकार कुछ ही लोग कर पाते हैं। मगर जो कर पाते हैं, उनका काम दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाता है। ऐपण कला को नया आयाम देने वाली हल्द्वानी की अभिलाषा इसी प्रेरणा का नाम हैं। पारंपरिक ऐपण कला के साथ पेंटिंग विधा का मिश्रण करने वाली अभिलाषा ने खूबसूरत कल्पनाओं को कैनवास पर उतारकर जीवंत किया है।
रामपुर रोड स्थित प्रेम विहार कालोनी की रहने वाली अभिलाषा पालीवाल (30) ऐपण विधा के जरिये उत्तराखंडी लोक संस्कृति को आगे बढ़ाने में जुटी हैं। अभिलाषा को ऐपण पेटिंग के साथ हाथ से निर्मित क्राफ्ट, पारंपरिक आर्ट, वुडन पेंटिंग व कैनवास पेंटिंग बनाने में महारथ है। उनकी पेटिंग में उत्तराखंडी पारंपरिक वाद्ययंत्र, पहाड़ का लोक जीवन, वेशभूषा के साथ देवी-देवताओं के चित्र शामिल होते हैं। इंस्टाग्राम के जरिये लोगों में पहचान बनाने वाली अभिलाषा को अब पेटिंग के लिए डिमांड भी आने लगी है।




फैशन डिजाइनिंग का मिला लाभ : ग्रेजुएशन करने के बाद अभिलाषा ने देहरादून से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया। जहां ड्रेस डिजाइनिंग की बारीकी सीखी। अभिलाषा कहती हैं बैग पर ऐपण उकेरने का प्रयोग लोगों का काफी पसंद आ रहा है। अभिलाषा ने जनवरी में काम शुरू किया। दस माह में ही लोगों से पेटिंग की डिमांड आने लगी। अभिलाषा ने लोगों की डिमांड पर आकर्षक ऐपण पेटिंग तैयार कर लोगों को देना शुरू कर दिया है।

पति ने किया प्रोत्साहित : अभिलाषा कहती हैं कि पति अमित पालीवाल ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। अमित अकाउंटेंट हैं और हल्द्वानी में जॉब करते हैं।

Thursday, 3 October 2019

कुमाऊंनी नहीं, कुमाऊं की रामलीला कहिये

कुमाऊं अंचल में प्रचलित रामलीला गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। इसमें शास्त्रीयता का पुट मिलता है। कहा जाता है रामलीला प्रदर्शन की परंपरा ब्रज से होते हुए कुमाऊं तक पहुंची। रामलीला की शैली, गायन, ताल, छंद का जो नाट्य रूप था, इसी से अभिप्रेरित होकर कुमाऊं के विद्वानों के मन में रामलीला को नया रूप देने का विचार आया और यहीं से 'कुमाऊं की रामलीला' उभर कर आई।


कुमाऊं की रामलीला के मर्मज्ञ इस बात को मानते हैं कि ब्रज की रासलीला के अतिरिक्त 'नौटंकी शैली' व पारसी रंगमंच का प्रभाव भी कुमाऊं की रामलीला में मिलता है। लेखक चंद्रशेखर तिवारी के मुताबिक कुमाऊं की रामलीला विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे।
'कुमाऊं की रामलीला अध्ययन एवं स्वरांकन' पुस्तक में डॉ. पंकज उप्रेती लिखते हैं कि तमाम विविधता समेटे होने के बावजूद कुमाऊं में प्रचलित होने के कारण यहां की रामलीला को 'कुमाऊंनी रामलीला' संबोधित कर दिया जाता है। जबकि लोक का प्रकटीकरण नहीं होने के कारण इसे 'कुमाऊं की रामलीला' कहना उचित रहेगा।
 

ब्रजेंद्र साह ने तैयार की 'कुमाऊंनी रामलीला'
कुमाऊं अंचल में 'कुमाऊंनी रामलीला' का भी प्रचलन है। हालांकि स्वरांकन न हो पाने के कारण यह प्रचलन में कम है। लेखक डॉ. पंकज उप्रेती के मुताबिक 'कुमाऊंनी रामलीला' पूरी तरह लोक पर आधारित है। इसकी बोली-भाषा से लेकर संगीत पक्ष तक कुमाऊं से उठाया गया है। 1957 में रंगकर्मी स्व. ब्रजेंद्र लाल साह ने लोक धुनों के आधार पर रामलीला गीता-नाटिका की रचना की। स्व. डॉ. एसएस पांगती के प्रयासों से पिथौरागढ़ के दरकोट में 'कुमाऊंनी रामलीला' का मंचन शुरू हुआ, जो आज तक जारी है।

ऑडियो रूप में हो रही संग्रहित
लेखक स्व. शेर सिंह पांगती की प्रेरणा से रंगकर्मी देवेंद्र पांगती 'देवु' 'कुमाऊंनी रामलीला' को ऑडियो रूप में संकलित करते में जुटे हैं। दो साल की मेहनत के बाद 'देवु' ने लोक गायकों की आवाज में सात अध्यायों का संकलित कर लिया है। देवेंद्र पांगती कहते हैं एक बार ऑडियो रूप में संकलित होने के बाद कहीं भी 'कुमाऊंनी रामलीला' का मंचन आसान हो जाएगा।

Tuesday, 24 September 2019

रामनगर की मीनाक्षी ने ऐपण विधा को दिया नया आयाम

पूजा थाल के साथ मीनाक्षी खाती।

उत्तराखंड की अद्भुत लोक कला ऐपण को नया आयाम देने वाली कुमाऊं की ऐपण गर्ल मीनाक्षी खाती के हाथों का हुनर पूरा देश देखेगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी पर पर्यटन मंत्रालय की ओर से 2 से 6 अक्टूबर तक दिल्ली में होने वाले राष्ट्रीय पर्यटन पर्व में मीनाक्षी की हाथ से निर्मित ऐपण की प्रदर्शनी लगेगी। राष्ट्रीय फलक के आयोजन के लिए मीनाक्षी नई परंपरा के ऐपण तैयार करने में जुटी हैं। नैनीताल जिले के रामनगर की रहने वाली मीनाक्षी बीएससी अंतिम वर्ष की छात्रा हैं। ऐपण विधा को नया आयाम देने के लिए सोशल मीडिया पर चर्चित हुई मीनाक्षी को ऐपण गर्ल नाम दिया जा रहा है। मीनाक्षी ने बताया कि पर्यटन पर्व के लिए उन्होंने पहाड़ कॉलिंग थीम पर विशेष ऐपण तैयार किए हैं।  


ऐपण से सजा चाय कप।

इसलिए आईं चर्चा में 
 ऐपण को मूलरूप से गेरू (लाल मिट्टी) व बिस्वार (पीसे चावल में पानी मिलाकर तैयार लेप) से तैयार किया जाता है। मांगलिक कार्यों में ऐपण से घरों व मंडप को सजाने की परंपरा है। बाद में रेडीमेड स्टीकर ने ऐपण का रूप ले लिया। मीनाक्षी ने नेम प्लेट, चाय का कप, चाबी छल्ला, पूजा थाल, फ्लावर पॉट, पैन स्टैंड आदि में ऐपण को उताकर नया लुक दिया है। इससे स्वरोजगार की संभावना को भी बल मिला है।


ऐपण से दिया छल्ले का आकर्षक रूप।
इस तरह मिला आइडिया 
मीनाक्षी को दादी कमला खाती व मां उमा खाती से ऐपण कला विरासत में मिली। बचपन में दोनों को ऐपण बनाते देखने वाली मीनाक्षी को ऐपण को नए लुक में सामने लाने का विचार आया। फेसबुक, स्ट्राग्राम पर खूबसूरत फोटो शेयर करने से लोगों की पसंद बनती चली गईं।

दिल्ली, लखनऊ से आ रही डिमांड
सोशल मीडिया से प्रसिद्धि पाने वाली मीनाक्षी को दिल्ली, नोएडा, फरीदाबाद, लखनऊ जैसे शहरों से ऐपण युक्त नेम प्लेट, कप, पूजा थाल की डिमांड आ रही है। चमोली के ट्रेकिंग ग्रुप चेस हिमालया ने मीनाक्षी से 60 कप की डिमांड भेजी है। विदेशी ट्रेकर उत्तराखंड की याद के रूप में इसे अपने साथ लेकर आएंगे।

पहाड़ बुलाते हैं, कभी आइये।
नई पीढ़ी को बना रहीं हुनरमंद
मीनाक्षी का हुनर खुद तक सीमित नहीं है। समय मिलने पर वह आसपास के स्कूलों में जाकर कक्षा 9 से 12वीं के बच्चों को ऐपण का हुनर सिखाती हैं। मीनाक्षी कहती हैं नई पीढ़ी में पुरातन परंपरा का बीज बोना जरूरी है। इसके लिए किसी को तो पहल करनी होगी। फिर यह हुनर स्वरोजगार कर जरिया बने तो कहना ही क्या।

Sunday, 26 May 2019

राष्ट्रीय संग्रहालय का हिस्सा बनी पाषाण युद्ध की ढाल

चम्पावत जिले के देवीधुरा में होने वाले पौराणिक व एतिहासिक महत्व के बग्वाल मेले (पाषाण युद्ध) में प्रयोग होने वाली ढाल राष्ट्रीय धरोहर का हिस्सा बन गई है। देवीधुरा के प्रसिद्ध मां बाराही मंदिर में रक्षाबंधन के दिन होने वाले बग्वाल मेले में चार गांवों (स्थानीय भाषा में चार खाम) के लोग दो समूह में बंटकर एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। पत्थरों की बारिश से चोटिल होने से बचाने वाली ढाल (फर्रे) को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल में प्रदर्शित किया गया है। बाराही मंदिर में श्रावण शुक्ल एकादशी से कृष्ण जन्माष्टमी तक मेला आयोजित होता है। रक्षाबंधन यानी श्रावणी पूर्णिमा के दिन होने वाली 'बग्वाल' एक तरह का पाषाण युद्ध है। जिसको देखने देश के कोने-कोने से लोग पहुंचते हैं। आचार्य कीर्ति बल्लभ जोशी मेले को लेकर चली आ रही मान्यता बताते हुए कहते हैं कि बग्वाल खेलने वाला व्यक्ति यदि पूर्णरूप से शुद्ध व पवित्रता रखता है तो उसे पत्थरों की चोट नहीं लगती।


बांस व ङ्क्षरगाल से होती है तैयार

छतरी नुमा आकार के फर्रा को पतली-पतली बांस व ङ्क्षरगाल की डंडियों से तैयार किया जाता है। डंडियों को आपास में इतना कसकर जोड़ा जाता है ताकि वह तेज गति से आ रहे पत्थरों का वेग आसानी से सह सके। अंदर की तरफ फर्रे को पकडऩे के लिए हैंडिल बनाया जाता है, ताकि तेजी से आते पत्थरों को रोकते समय पकड़ मजबूत बनी रहे। 



डॉ. नयाल ने किया संकलन

मानव विज्ञान संग्रहालय भोपाल के अंतरंग भवन वीथि संकुल में प्रदर्शित ढाल का संकलन संग्रहालय के सहायक डॉ. आरएम नयाल ने किया। डॉ. नयाल ने बग्याल मेले व ढाल की बेसिक जानकारी देते दस्तावेज भी तैयार किए हैं।


बढ़ेगा प्रदेश का मान

मां बाराही मंदिर समिति देवीधुरा के अध्यक्ष खीम सिंह लमगडिय़ा कहते हैं बग्वाल मेला प्राचीन समय से चला आ रहा है। स्थानीय लोग आज भी उसी आस्था से बग्वाल की परंपरा निभाते हैं। बग्वाल में प्रयोग होने वाली ढाल को मानव विज्ञान संग्रहालय में प्रदर्शित करना लोक परंपरा को संरक्षित करने जैसा है। देश-विदेश के लोग मेले के बारे में जान पाएंगे।