Monday, 13 July 2020

न समझा कोई मेरा वजूद, अब तो पन्‍ने से स्याही छूटने को आतुर...

'बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो, ऐ काश हमारी आंखों का इक्कीसवां ख्वाब तो अच्छा हो।' शायर गुलाम मोहम्मद कासिर का ये शेर किताबों की एहमियत बतलाता है, मगर अपने शहर को शेर-ओ-शायरी के अलफाज, किताबों की उपयोगिता कहां समझ आती है। कम से कम यहां के प्रतिनिधि, प्रशासनिक अफसर तो इसे नहीं समझते। समझते तो शहर में 'नो शाॅपिंग माॅल, सेव लाइब्रेरी' के नारे न गूंजते। यूपी के पहले मुख्यमंत्री रहते हुए पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने 15 अक्टूबर 1953 को शहर के बीचोंबीच जिस लाइब्रेरी की आधार शिला रखी थी, उस जगह पर शाॅपिंग माॅल खड़ा करने की बात न चलती। शहर के दुर्भाग्य से पिछले कुछ दिनों से यही हो रहा है।

रोडवेज स्टेशन से लगी गोविंद बल्लभ पंत लाइब्रेरी किसी दौर में किताबों के कद्रदानों का ठिकाना थी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले नौजवान, साहित्यप्रेमी बुजुर्ग यहां आना नित्य कर्म समझते। अनदेखी ने इसे 'अनाथ' बना दिया। 2006 में तत्कालीन पालिकाध्यक्ष हेमंत बगड़वाल ने लाइब्रेरी के जीर्णोद्धार कार्य का शिलान्यास किया। दो साल बाद तब की पालिकाध्यक्ष रहीं रेनू अधिकारी ने लाइब्रेरी पुनः शहर को अर्पित की। स्वरूप बदला, लाइब्रेरी की जगह बढ़ी, पर किताबें सीमित होती चली गईं। आज स्थिति यह है कि लाइब्रेरी की शीशे की अलमारी में बंद चंद किताबें हाथों में आने को छटपटा रही हैं। कमरे का ताला साफ-सफाई के लिए ही खुलता है। गैलरी में लकड़ी की अलमारियां दीवार की तरफ मुंह किए खड़ी हैं। खाली अलमारी की तरफ जब कोई झांके न तो मुंह फेर लेना लाजिमी है। हो सकता है उन्हें खुद पर शर्मिंगदी आती हो..।

दीवार पर लाइब्रेरी के खुलने का समय मोटे अक्षरों में दर्ज है। सुबह आठ से दस, शाम चार से आठ बजे तक लाइब्रेरी खुलती है। यह ऐसी लाइब्रेरी है जहां पढ़ने के लिए पुस्तक साथ लानी होती है। हां, यहां बैठने के लिए चंद कुर्सियां और मेज जरूर उपलब्ध है। पंखा बेशक नहीं है, मगर पंखे की हवा से किताब के पन्ने पलट न जाएं इसके लिए पत्थर के टुक्कड़ों के पेपर वेट जरूर मिल जाएंगे। शहरवासियों को अपने आसपास, देश-दुनिया की ताजा खबरों से अवगत कराने के लिए समाचार पत्र जरूरी होते हों, मगर यहां अखबारों के नाम पर दो दशक पुरानी 'रद्दी' पोटलियों में बंद है। लाइब्रेरी की ऐसी बदहाली पर किसी को भी तरस जा जाए।

बावजूद इसके यहां स्‍कूली बच्‍चों का आना होते रहा है। अभी भले कोरोना काल है, मगर जब कोरोना नहीं था और लाइब्रेरी के बराबर के प्रेस क्‍लब दफ्तर में यदा-कदा हम बैठे हुआ करते तो कई बच्‍चे पूछने आ जाते कि लाइब्रेरी कहां है, कितने बजे खुलती है जैसे सवाल लेकर। मुझे याद है कि हमारे साथी भुपेश कन्‍नौजिया और मैंने लाइब्रेरी के दरवाजे पर लिख दिया था 'लाइब्रेरी इधर है।' बाकायदा ऐराे भी बना दिया। उस पर लाइब्रेरी खुलने का समय भी दर्ज कर दिया। बहरहाल, हुक्मरानों को इसे समझना होगा। शायर आदिल मंसूरी ने आगाह किया है- 'किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को, कागज बिखर रहे हैं पुरानी किताब के।'
-गणेश पांडे

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