Wednesday, 29 April 2020

कोरोना महामारी और दाढ़ी

दो-तीन दिनों से बच्ची के स्कूल से मैसेज आ रहे थे। लॉकडाउन में कुछ दिनों से जो असाइनमेंट दिया जा रहा था अब उसे फेयर नोटबुक में किया जाना है। हालांकि स्कूल रियायत दे रहे हैं कि शहर से बाहर होने पर यह कंपलसरी नहीं है। पिछले 2 दिनों से स्टेशनरी की दुकान भी खुल गई हैं। मालूमात करने की मंशा से स्टेशनरी की दुकान की तरफ चल दिया। बुक सेलर की दुकान पर पहुंचा। मुंह पर मास्क और सिर पर हेलमेट। दाढ़ी मास्क से बाहर झांक रही थी। मानो बाहर का माहौल देखने की लालसा थी उसकी। मुझे कतार में देख दुकानदार भयभीत हो गया। देखिए! आप दूर-दूर रहिए। इस तरह मैं किताबें नहीं दे पाऊंगा। आप इधर से (दूसरी और इशारा करते हुए) लाइन में लगिए। उसकी आवाज में बौखलाहट थी। जिस ओर उसने इशारा किया था उस तरफ कोई लाइन नहीं थी। हमारे बराबर की पंक्ति में खड़ी महिलाओं की निगाहें मुझे अचरज से देख रही थी। मैं सकपकाया। अपने कदम थोड़ी पीछे सरका लिए। तभी मेरे पीछे खड़े सज्जन बोल पड़े, आप ठीक तो खड़े हो। उनके शब्दों ने मुझे थोड़ी हिम्मत दी। 

प्रतीकात्मक चित्र

अब तक मैं मामले को समझ चुका था। मैंने किसी लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघा था। यह दोष दुकानदार का भी न था। पंक्ति में खड़ी महिलाओं की निगाह ने भी कोई अपराध नहीं किया था। निगाहों का तो काम है। आकर्षक और विचित्र जगह पर वह स्वस्फूर्त चली जाती हैं। आंखों की प्रकृति और प्रवृत्ति भले ऐसी हो, मगर इंसान की प्रवृत्ति कभी ऐसी न थी। हमारा सामाजिक ताना-बाना भाईचारे और इंसानियत के इर्द-गिर्द बुना गया है। खैर, यह उस मानसिकता की साजिश थी, जिसने कोरोना महामारी को धार्मिक जामा पहनाने की गैर मजहबी हिमाकत की। अरे भैया! आगे बढ़ो। पीछे खड़े सज्जन की आवाज ने मुझे कल्पना की दुनिया से यथार्थ में लौटा दिया। अरे सॉरी कहता हुआ मैं आगे बढ़ा। दुकानदार ने बच्ची का नाम और क्लास पूछी। मिताली पांडे, क्लास फस्ट सुनकर उसने मेरे चेहरे की तरफ देखा। इस बार उसकी आंखों में डर नहीं था। शायद वह कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से संक्रमित होने से बच गया था। मैं भी राहत महसूस करने लगा था कि किसी गलतफहमी और पूर्वाग्रह का शिकार होने से बच गया। दाढ़ी की वजह से उपजे विवाद से स्वर्गीय बाबूजी याद आ गए। बाबू शायद कह रहे थे बेटा वार्षिक श्राद्ध में बस एक महीना रह गया है। फिर तू किसी गलतफहमी का शिकार न होगा। बाबूजी का पुण्य स्मरण।
(गणेश पांडे)

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