Thursday, 13 February 2020

कुमाऊं के होली गीतों में बखूबी झलकता है वसंत


ब्रज की तरह कुमाऊं की बैठकी होली की परंपरा काफी समृद्ध व निराली है। यहां की होली में देवी-देवताओं की स्तुति, आह्वान है तो देवर-भाभी के बीच की हंसी-ठिठोली भी। पौष के पहले रविवार से चरणबद्ध रूप से बैठकी होली गाई जाती है। शुरुआत निर्वाण की होली से होती है। यह एक तरीके से किसी शुभ कार्य से पहले गणेश पूजन जैसा होता है। 'सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन, होली खेले गिरजापति नंदन..।'  शब्द स्वत: भान करा देते हैं कि श्रीगणेश का वंदन हो रहा है। वसंत पंचमी के बाद जब प्रकृति शृंगार करते हुए यौवन रूप धरने लगती है तो होली गीतों में इसकी झलक खूब दिखती है। हरियाली ओढ़े प्रकृति के बीच खिले रंग-बिरंगे फूलों को देख हर्षित युवती अपनी सखी से कहती है- 'आयो नवल वसंत सखी ऋतुराज कहावे, पुष्प कली सब फूलन लागे फूल ही फूल सुहावे..।' वसंत के माधुर्य में कृष्ण-गोपियों के बीच की अटखेली बड़ी सुंदरता से कुमाऊं के होली गीतों में प्रतिबिंबित होती है। 'आयो वसंत लागी होरी, कृष्ण बजावै गोपी गावै..।' बुजुर्गों के साथ नवअंकुर होल्यार जब राग-रागिनी पर आधारित होली गीतों के सुर गुनगुनाते हैं तो देखने-सुनने वाला तक होली की रंगत में डूबने लगता है।



महाशिवरात्रि से फिल बदलेगा ढब
महाशिवरात्रि के पर्व से बैठकी होली एक चरण आगे बढ़कर देवी-देवताओं की आराधना का रूप लेने लगती है। होल्यारों की बढ़ती संख्या के साथ हंसी-ठिठोली व राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ वाले गीत गाए जाएंगे। रंगभरी एकादशी से रंग खेलने के साथ खड़ी होली का क्रम शुरू होने लगता है।



कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभाव
कुमाऊं में होली का प्रारंभ दसवीं-ग्यारहवीं सदी में माना जाता है। कुमाऊं की होली पर शोध करने वाले डॉ. पंकज उप्रेती बताते हैं टिहरी व श्रीनगर शहर में कुमाऊं के लोगों की बसासत व राजदरबार होने से होली का वर्णन मौलाराम की कविताओं में आता है। पंडित लोकरत्न पंत 'गुमानी' की रचनाओं में भी होली के गीत हैं। कुमाऊं की होली के काव्य स्वरूप में विस्तृत भाव भरा हुआ है। कुमाऊं व दरभंगा की होली में अनोखा सामंजस्य है। कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभाव भी इसमें पड़ा। अनामत अली उस्ताद ने होली गायकी को ठुमरी के रूप में सोलह मात्राओं में पिरोया।

वसंतोत्सव का वृहद स्वरूप है होली
डॉ. उप्रेती होली को वसंत के आगमन पर होने वाले उत्सव का वृहद स्वरूप मानते हैं। वह बताते हैं 'बाल नक्खत' जैसे मूर्ख सम्मेलन का उल्लेख प्राचीन साहित्य में है। गांव के लोग समूह में मुख रंगाये हुए, गोबर, कीचड़ से सने घर-घर घूमकर अपनी इच्छित वस्तु की मांग करते थे। नाग-वाकाटम काल में मदनोत्सव प्रचलित था। कामसूत्र में 'होलका' नामक उत्सव का उल्लेख मिलता है, जिसमें टेसू से बने रंगों को एक-दूसरे पर डालने का चलन था।


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