Monday, 9 December 2019

हल्द्वानी के विवेक ने पेंटिंग के जरिये बयां किया पलायन का दर्द

उत्तराखंड की पलायन की पीड़ा किसी से छिपी नहीं है। पलायन के चलते गांव के गांव खाली हो चुके हैं। वर्षों पहले ताले पड़ चुके मकान खंडहर में तब्दील हो रहे हैं। एक सर्वे के मुताबिक उत्तराखंड के 16793 गांवों में तीन हजार से अधिक गांव जनविहीन हो चुके हैं। इस सबके बीच नैनीताल जिले के विवेक भावनाओं व उम्मीद के रंगों के जरिये खाली होते गांवों के प्रति सुखद भविष्य की आस जगा रहे हैं। पहाड़ की जीवन शैली, एतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर को कैनवास पर उतार रहे विवेक देश-विदेश में रहने वाले प्रवासी उत्तराखंडियों के मन में पहाड़ की याद जगा रहे हैं, ताकि अपनी मिट्टी की खुशबू को महसूस करने वाले लोग किसी न किसी बहाने पहाड़ की तरफ लौटे। विवेक की पहल को सोशल मीडिया पर काफी सराहना मिल रही है।

ऐपण उकेरे पुराने घर जगाते हैं नराई
पलायन के चलते पहाड़ के घर खंडहर हो रहे हैं। नैनीताल के बेतालघाट के रहने वाले 25 वर्षीय विवेक बिष्ट 'विरंजन' की खंडहर घरों को दर्शाती पेंटिंग देश-विदेश में रहने वाले लोगों के मन में पहाड़ की नराई जगाते हुए अपने गांव लौटने की अपील करती है। ऐपण से सजी देहरी पर बैठे बुजुर्ग अपनों को बुलाते हुए कहते है कि मानों आपके बगैर घरों की रौनक गायब है।
 
वाटर कलर का प्रयोग
इलेक्ट्रिकल इंजीनियङ्क्षरग की पढ़ाई करने वाले विवेक ने सात साल पहले शौकिया तौर पर पेंटिंग बनानी शुरू की। बाद में इसे प्रोफेशन बना लिया। अब तक 300 से ज्यादा पेंटिंग बना चुके हैं। विवेक एतिहासिक धरोहरों के साथ कहानी, कविता के लिए चित्रों के जरिये बयां करते हैं।

चित्रकार विजय विश्वाल पसंदीदाविवेक को खुद की बनाई पेंटिंग बहुत पसंद है। कहते हैं कलाकार के लिए कोई पेंटिंग कम या अधिक उपयोग नहीं होती। वह हर चित्र को पूरे शिद्दत से उकेरता है। दूसरे चित्रकारों में विजय विश्वाल विवेक के पसंदीदा हैं।







Monday, 14 October 2019

रिटायर्ड आयकर आयुक्त के हाथों का हुनर, पेंसिल से उकेरते महापुरुषों के चित्र

इरादे अगर जवां हों तो मन में पल्लवित होते शौक के पूरा होने में ढलती उम्र भी बाधा नहीं बनती। जरूरत होती है तो केवल शिद्दत के साथ जुटने की। अगर जुट गए तो कारवां बढ़ते जाता है। डॉ. सतीश चंद्र अग्रवाल ऐसा ही नाम है। डॉ. अग्रवाल पेंटिंग बनाने के स्कूली दिनों के शौक को 66 की उम्र में साकार कर रहे हैं।
हल्द्वानी के नैनीताल रोड स्थित वैशाली कालोनी में रहने वाले अग्रवाल को स्कूली दिनों से पेंटिंग का शौक था। जब समय मिलता सादे कागज पर पेंसिल से महापुरुषों के रेखाचित्र बनाते। 1972 में एमबीपीजी कॉलेज से स्नातक करने के बाद एलएलबी की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चले गए। बाद में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और फिर नौकरी के चलते पेंटिंग का शौक कैनवास पर खुलकर नहीं उतर पाया। 2013 में आयकर आयुक्त पद से रिटायर्ड हुए डॉ. अग्रवाल अपने बचपन के शौक को अब पूरा करने में लगे हैं। वर्तमान में इनके पास सौ से अधिक पेंटिंग बनी हैं। कई पेंटिंग दूसरों को भेंट कर चुके हैं। डॉ. अग्रवाल की परिकल्पना पर बरेली रोड स्थित लटूरिया आश्रम में आकर्षक हनुमान झांकी तैयार की गई है।


पेंसिल, रबर का करते हैं प्रयोग
डॉ. अग्रवाल पेंसिल व रबर की मदद से स्केच तैयार करते हैं। उन्होंने पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, महात्मा गांधी, डॉ. अब्दुल कलाम, सरदार पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, आइंस्टीन, बिस्मिल्ला खां, जीबी पंत समेत कई महापुरुषों के अलावा नीम करौली महाराज, लटुरिया बाबा, महादेव गिरि जैसे प्रसिद्ध संतों के रेखाचित्र व मार्बल की मूर्तियां बताई हैं।

लाल बहादुर शास्त्री की बनाई पहली पेंटिंग
रामलीला मोहल्ले में डा. अग्रवाल का पुस्तैनी घर था। नजदीक के केमू स्टेशन के पास लाल बहादुर शास्त्री के चाचा सदगुरु शरण श्रीवास्तव रहते थे। वह एमबी इंटर कॉलेज में प्रवक्ता थे। 1968 में सदगुरु ने अग्रवाल की सुंदर पेंटिंग देखकर उनसे बाल बहादुर शास्त्री का चित्र बनाने को कहा। यहां से पेंटिंग का शौक जुनून में परिवर्तित हो गया।

कई काव्य संग्रह का प्रकाशन
साहित्य के प्रति रुचि के चलते अग्रवाल ने 1995 में मॉरिशस के ङ्क्षहदी साहित्य में शोध किया। चितवन, आकाश अपना-अपना काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा कई पत्रिकाओं का संपादन, जीवन लेखन कर चुके हैं।

Monday, 7 October 2019

पारंपरिक ऐपण कला में पेंटिंग विधा का समावेश, हल्द्वानी की अभिलाषा ने कुमाऊंनी ऐपण को दिया नया आयाम


कल्पनाएं सभी के मस्तिष्क में उभरती हैं, लेकिन उसे साकार कुछ ही लोग कर पाते हैं। मगर जो कर पाते हैं, उनका काम दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाता है। ऐपण कला को नया आयाम देने वाली हल्द्वानी की अभिलाषा इसी प्रेरणा का नाम हैं। पारंपरिक ऐपण कला के साथ पेंटिंग विधा का मिश्रण करने वाली अभिलाषा ने खूबसूरत कल्पनाओं को कैनवास पर उतारकर जीवंत किया है।
रामपुर रोड स्थित प्रेम विहार कालोनी की रहने वाली अभिलाषा पालीवाल (30) ऐपण विधा के जरिये उत्तराखंडी लोक संस्कृति को आगे बढ़ाने में जुटी हैं। अभिलाषा को ऐपण पेटिंग के साथ हाथ से निर्मित क्राफ्ट, पारंपरिक आर्ट, वुडन पेंटिंग व कैनवास पेंटिंग बनाने में महारथ है। उनकी पेटिंग में उत्तराखंडी पारंपरिक वाद्ययंत्र, पहाड़ का लोक जीवन, वेशभूषा के साथ देवी-देवताओं के चित्र शामिल होते हैं। इंस्टाग्राम के जरिये लोगों में पहचान बनाने वाली अभिलाषा को अब पेटिंग के लिए डिमांड भी आने लगी है।




फैशन डिजाइनिंग का मिला लाभ : ग्रेजुएशन करने के बाद अभिलाषा ने देहरादून से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया। जहां ड्रेस डिजाइनिंग की बारीकी सीखी। अभिलाषा कहती हैं बैग पर ऐपण उकेरने का प्रयोग लोगों का काफी पसंद आ रहा है। अभिलाषा ने जनवरी में काम शुरू किया। दस माह में ही लोगों से पेटिंग की डिमांड आने लगी। अभिलाषा ने लोगों की डिमांड पर आकर्षक ऐपण पेटिंग तैयार कर लोगों को देना शुरू कर दिया है।

पति ने किया प्रोत्साहित : अभिलाषा कहती हैं कि पति अमित पालीवाल ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। अमित अकाउंटेंट हैं और हल्द्वानी में जॉब करते हैं।

Thursday, 3 October 2019

कुमाऊंनी नहीं, कुमाऊं की रामलीला कहिये

कुमाऊं अंचल में प्रचलित रामलीला गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। इसमें शास्त्रीयता का पुट मिलता है। कहा जाता है रामलीला प्रदर्शन की परंपरा ब्रज से होते हुए कुमाऊं तक पहुंची। रामलीला की शैली, गायन, ताल, छंद का जो नाट्य रूप था, इसी से अभिप्रेरित होकर कुमाऊं के विद्वानों के मन में रामलीला को नया रूप देने का विचार आया और यहीं से 'कुमाऊं की रामलीला' उभर कर आई।


कुमाऊं की रामलीला के मर्मज्ञ इस बात को मानते हैं कि ब्रज की रासलीला के अतिरिक्त 'नौटंकी शैली' व पारसी रंगमंच का प्रभाव भी कुमाऊं की रामलीला में मिलता है। लेखक चंद्रशेखर तिवारी के मुताबिक कुमाऊं की रामलीला विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे।
'कुमाऊं की रामलीला अध्ययन एवं स्वरांकन' पुस्तक में डॉ. पंकज उप्रेती लिखते हैं कि तमाम विविधता समेटे होने के बावजूद कुमाऊं में प्रचलित होने के कारण यहां की रामलीला को 'कुमाऊंनी रामलीला' संबोधित कर दिया जाता है। जबकि लोक का प्रकटीकरण नहीं होने के कारण इसे 'कुमाऊं की रामलीला' कहना उचित रहेगा।
 

ब्रजेंद्र साह ने तैयार की 'कुमाऊंनी रामलीला'
कुमाऊं अंचल में 'कुमाऊंनी रामलीला' का भी प्रचलन है। हालांकि स्वरांकन न हो पाने के कारण यह प्रचलन में कम है। लेखक डॉ. पंकज उप्रेती के मुताबिक 'कुमाऊंनी रामलीला' पूरी तरह लोक पर आधारित है। इसकी बोली-भाषा से लेकर संगीत पक्ष तक कुमाऊं से उठाया गया है। 1957 में रंगकर्मी स्व. ब्रजेंद्र लाल साह ने लोक धुनों के आधार पर रामलीला गीता-नाटिका की रचना की। स्व. डॉ. एसएस पांगती के प्रयासों से पिथौरागढ़ के दरकोट में 'कुमाऊंनी रामलीला' का मंचन शुरू हुआ, जो आज तक जारी है।

ऑडियो रूप में हो रही संग्रहित
लेखक स्व. शेर सिंह पांगती की प्रेरणा से रंगकर्मी देवेंद्र पांगती 'देवु' 'कुमाऊंनी रामलीला' को ऑडियो रूप में संकलित करते में जुटे हैं। दो साल की मेहनत के बाद 'देवु' ने लोक गायकों की आवाज में सात अध्यायों का संकलित कर लिया है। देवेंद्र पांगती कहते हैं एक बार ऑडियो रूप में संकलित होने के बाद कहीं भी 'कुमाऊंनी रामलीला' का मंचन आसान हो जाएगा।

Tuesday, 24 September 2019

रामनगर की मीनाक्षी ने ऐपण विधा को दिया नया आयाम

पूजा थाल के साथ मीनाक्षी खाती।

उत्तराखंड की अद्भुत लोक कला ऐपण को नया आयाम देने वाली कुमाऊं की ऐपण गर्ल मीनाक्षी खाती के हाथों का हुनर पूरा देश देखेगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी पर पर्यटन मंत्रालय की ओर से 2 से 6 अक्टूबर तक दिल्ली में होने वाले राष्ट्रीय पर्यटन पर्व में मीनाक्षी की हाथ से निर्मित ऐपण की प्रदर्शनी लगेगी। राष्ट्रीय फलक के आयोजन के लिए मीनाक्षी नई परंपरा के ऐपण तैयार करने में जुटी हैं। नैनीताल जिले के रामनगर की रहने वाली मीनाक्षी बीएससी अंतिम वर्ष की छात्रा हैं। ऐपण विधा को नया आयाम देने के लिए सोशल मीडिया पर चर्चित हुई मीनाक्षी को ऐपण गर्ल नाम दिया जा रहा है। मीनाक्षी ने बताया कि पर्यटन पर्व के लिए उन्होंने पहाड़ कॉलिंग थीम पर विशेष ऐपण तैयार किए हैं।  


ऐपण से सजा चाय कप।

इसलिए आईं चर्चा में 
 ऐपण को मूलरूप से गेरू (लाल मिट्टी) व बिस्वार (पीसे चावल में पानी मिलाकर तैयार लेप) से तैयार किया जाता है। मांगलिक कार्यों में ऐपण से घरों व मंडप को सजाने की परंपरा है। बाद में रेडीमेड स्टीकर ने ऐपण का रूप ले लिया। मीनाक्षी ने नेम प्लेट, चाय का कप, चाबी छल्ला, पूजा थाल, फ्लावर पॉट, पैन स्टैंड आदि में ऐपण को उताकर नया लुक दिया है। इससे स्वरोजगार की संभावना को भी बल मिला है।


ऐपण से दिया छल्ले का आकर्षक रूप।
इस तरह मिला आइडिया 
मीनाक्षी को दादी कमला खाती व मां उमा खाती से ऐपण कला विरासत में मिली। बचपन में दोनों को ऐपण बनाते देखने वाली मीनाक्षी को ऐपण को नए लुक में सामने लाने का विचार आया। फेसबुक, स्ट्राग्राम पर खूबसूरत फोटो शेयर करने से लोगों की पसंद बनती चली गईं।

दिल्ली, लखनऊ से आ रही डिमांड
सोशल मीडिया से प्रसिद्धि पाने वाली मीनाक्षी को दिल्ली, नोएडा, फरीदाबाद, लखनऊ जैसे शहरों से ऐपण युक्त नेम प्लेट, कप, पूजा थाल की डिमांड आ रही है। चमोली के ट्रेकिंग ग्रुप चेस हिमालया ने मीनाक्षी से 60 कप की डिमांड भेजी है। विदेशी ट्रेकर उत्तराखंड की याद के रूप में इसे अपने साथ लेकर आएंगे।

पहाड़ बुलाते हैं, कभी आइये।
नई पीढ़ी को बना रहीं हुनरमंद
मीनाक्षी का हुनर खुद तक सीमित नहीं है। समय मिलने पर वह आसपास के स्कूलों में जाकर कक्षा 9 से 12वीं के बच्चों को ऐपण का हुनर सिखाती हैं। मीनाक्षी कहती हैं नई पीढ़ी में पुरातन परंपरा का बीज बोना जरूरी है। इसके लिए किसी को तो पहल करनी होगी। फिर यह हुनर स्वरोजगार कर जरिया बने तो कहना ही क्या।

Sunday, 26 May 2019

राष्ट्रीय संग्रहालय का हिस्सा बनी पाषाण युद्ध की ढाल

चम्पावत जिले के देवीधुरा में होने वाले पौराणिक व एतिहासिक महत्व के बग्वाल मेले (पाषाण युद्ध) में प्रयोग होने वाली ढाल राष्ट्रीय धरोहर का हिस्सा बन गई है। देवीधुरा के प्रसिद्ध मां बाराही मंदिर में रक्षाबंधन के दिन होने वाले बग्वाल मेले में चार गांवों (स्थानीय भाषा में चार खाम) के लोग दो समूह में बंटकर एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। पत्थरों की बारिश से चोटिल होने से बचाने वाली ढाल (फर्रे) को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल में प्रदर्शित किया गया है। बाराही मंदिर में श्रावण शुक्ल एकादशी से कृष्ण जन्माष्टमी तक मेला आयोजित होता है। रक्षाबंधन यानी श्रावणी पूर्णिमा के दिन होने वाली 'बग्वाल' एक तरह का पाषाण युद्ध है। जिसको देखने देश के कोने-कोने से लोग पहुंचते हैं। आचार्य कीर्ति बल्लभ जोशी मेले को लेकर चली आ रही मान्यता बताते हुए कहते हैं कि बग्वाल खेलने वाला व्यक्ति यदि पूर्णरूप से शुद्ध व पवित्रता रखता है तो उसे पत्थरों की चोट नहीं लगती।


बांस व ङ्क्षरगाल से होती है तैयार

छतरी नुमा आकार के फर्रा को पतली-पतली बांस व ङ्क्षरगाल की डंडियों से तैयार किया जाता है। डंडियों को आपास में इतना कसकर जोड़ा जाता है ताकि वह तेज गति से आ रहे पत्थरों का वेग आसानी से सह सके। अंदर की तरफ फर्रे को पकडऩे के लिए हैंडिल बनाया जाता है, ताकि तेजी से आते पत्थरों को रोकते समय पकड़ मजबूत बनी रहे। 



डॉ. नयाल ने किया संकलन

मानव विज्ञान संग्रहालय भोपाल के अंतरंग भवन वीथि संकुल में प्रदर्शित ढाल का संकलन संग्रहालय के सहायक डॉ. आरएम नयाल ने किया। डॉ. नयाल ने बग्याल मेले व ढाल की बेसिक जानकारी देते दस्तावेज भी तैयार किए हैं।


बढ़ेगा प्रदेश का मान

मां बाराही मंदिर समिति देवीधुरा के अध्यक्ष खीम सिंह लमगडिय़ा कहते हैं बग्वाल मेला प्राचीन समय से चला आ रहा है। स्थानीय लोग आज भी उसी आस्था से बग्वाल की परंपरा निभाते हैं। बग्वाल में प्रयोग होने वाली ढाल को मानव विज्ञान संग्रहालय में प्रदर्शित करना लोक परंपरा को संरक्षित करने जैसा है। देश-विदेश के लोग मेले के बारे में जान पाएंगे।

Saturday, 13 April 2019

बुजुर्ग मां का देसी नुस्खा बना हर्बल प्रोडक्ट, मॉल पर बिक रहा

गणेश पांडे : दृढ़ इच्छाशक्ति व विजन हो तो नए रास्ते निकल आते हैं। बुजुर्ग मां के देसी नुस्खे को रोजगार का माध्यम बनाकर तारा दत्त जोशी ने इस सूत्र को सही साबित किया है। हर्बल उत्पादों से तैयार कुमकुम व रोली (पिठ्या) को बाजार में हाथों-हाथ लिया जा रहा है।

पुराने समय में जब बाजार सीमित था और गिने चुने लोगों की ही बाजार तक पहुंच थी। ऐसे में कई जरूरी चीज घर पर ही तैयार किए जाते थे। शुभ अवसरों पर माथे पर टीका करने के लिए कुमकुम, रोली तैयार करना भी इसमें शामिल था। हल्द्वानी रामपुर रोड के फूलचौड़ निवासी 55 वर्षीय तारा दत्त जोशी ने 76 वर्षीय मां भगवती देवी के नुस्खे को रोजगार का जरिया बना लिया। हर्बल उत्पादों की हल्द्वानी, अल्मोड़ा, रानीखेत बाजार में अच्छी डिमांड है। मेले महोत्सव में स्टॉल के अलावा हल्द्वानी के कई मॉल में भी हर्बल कुमकुम, रोली बिक रही है। इन दिनों सरस मेले में भी अच्छी काफी डिमांड देखने को मिल रह है।

जल्द चारधाम पहुंचेंगे उत्पाद
तारा जोशी ने बताया कि अभी हर माह औसतन दो कुंतल से अधिक कुमकुम, रोली बिक रही है। 10 ग्राम से 100 ग्राम तक की चार पैकिंग में उपलब्ध है। भविष्य में चारधाम बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री तक कुमकुम, रोली पहुंचाना चाहते हैं।

लोन से शुरू किया काम
इंटरमीडिएट पास तारा जोशी ने कुमाऊं मंडल विकास निगम से वीआरएस लेने के बाद कुछ समय सिडकुल में काम किया। तीन साल पहले कुमकुम, रोली बनाना शुरू किया। एक साल पहले खादी ग्रामोद्योग से दो लाख का लोन लेकर यूनिट स्थापित की। एक बार काम शुरू करने के बाद तारा जोशी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और काम को आगे बढ़ाते चले गए।

इस तरह होता है तैयार  
रोली को हल्दी, सुहागा पाउडर व नींबू के रस से तैयार किया जाता है। कुमकुम हल्दी, चंदन चुरा, मुलतानी मिट्टी के मिश्रण से बनाई जाती है। सभी उत्पादों को पीसने के बाद आपस में मिलाकर धूप में सुखाया जाता है। बाद में फिर पीसा जाता है। इस काम में पूरा परिवार जुटता है और दो बाहरी लोगों को भी रखा है। जोशी बताते हैं हर्बल उत्पाद पूजा के लिए शुद्ध होने के साथ स्वास्थ्य के लिए पूरी तरह सुरक्षित है।

Sunday, 10 March 2019

पेंटिंग की नई कला इजात, हीरा ने गेहूं के पौंध की डंठल से तैयार की एक से एक तस्वीरें

हीरा तस्वीरों को ऐसा उभारते हैं कि दिल छू लेती हैं।

गणेश पांडे। ब्रश व रंगों की मदद से कागज व कैनवास पर पेंटिंग बनाते आपने कइयों को देखा होगा, लेकिन हल्द्वानी के हीरा सिंह कोरंगा को रद्दी कागज और बेकार वस्तुओं से पेंटिंग बनाने में विशेषज्ञता हासिल है। गेहूं पौधे के डंठल, कुश घास से तैयार ये पेंटिंग ऐसी होती हैं कि देखने वाला देखता रह जाए। पुराने ग्रिटिंग कार्ड, कलैंडर से तैयार पेंटिंग भी लाजवाब होती है। 

हीरा की बनाई पेंटिंग में प्रकृति, देवी-देवता और मानवीय जनजीवन से लेकर राजनीतिक शख्सियत तक शामिल हैं। शहर के देवलचौड़ इलाके में रहने वाले हीरा सिंह परिवार पालने के लिए जनरल स्टोर की दुकान चलाते हैं। चित्रकला का जुनून ऐसा कि दुकान में बैठे-बैठे काउंटर पर पेंटिंग बनाने में मशगूल रहते हैं। दुकान का पिछला कमरा पेंटिंग से भरा है। दो साल में हीरा दो सौ से अधिक पेंटिंग बना चुके हैं।
चित्रकार हीरा सिंह कोरंगा।

तजुर्बे ने बना दिया कलाकार
 मूलरूप से पिथौरागढ़ जिले के रहने वाले 36 वर्षीय हीरा सिंह कोरंगा ने हाइस्कूल तक की पढ़ाई की है। हीरा बताते हैं उन्होंने किसी तरह का प्रशिक्षण नहीं लिया। स्कूली दिनों में छात्राओं को कपड़े पर कढ़ाई करते देखते थे। यहीं से इच्छा जगी व प्रयोग शुरू कर दिया। धीरे-धीरे तजुर्बा होता गया और पेंटिंग सुधरती चली गई।

हुनर के हाथों को काम की कमी नहीं

बुढ़ापा वक्त का तकाजा है, जवानी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति।
हीरा का कहना है हुनर रखने वालों के लिए काम की कमी नहीं है। बतौर हीरा 'लोग रोजगार कहते हैं, मैं हुनर कहता हूं।' क्रिएटिव व लीक से हटकर काम करने वालों के लिए स्वरोजगार के तमाम मौके हैं।
तस्वीर ऐसी उकेरी की हूबहू उतर गई।
स्कूलों में जाकर बच्चों को सिखाने की इच्छा 
 घास व कागज की रद्दी के बाद हीरा सिंह अब बांस में प्रयोग शुरू कर रहे हैं। दूसरों को हुनरमंद बनाने की लालसा रखने वाले हीरा सिंह स्कूलों में जाकर बच्चों को पेंटिंग बनाना सिखाना चाहते हैं। एक-दो स्कूल से बात शुरू की है। हीरा का नौ साल का बेटा कृष्णा भी देखा-देखी पेंटिंग में रुचि लेने लगा है।

ऐसे भी शिक्षक, जिन्होंने खुद के प्रयासों से बदल दी सरकारी स्कूल की तस्वीर

शिक्षक भाष्कर जोशी।

सुबह देरी से स्कूल पहुंचने व शाम को घर लौटने की जल्दी में रहने वाले कर्मचारियों के लिए शिक्षक भाष्कर जोशी मिसाल बनकर उभरे हैं। अल्मोड़ा जिले के राजकीय प्राथमिक विद्यालय बजेला में कार्यरत जोशी ने बच्चों की पढ़ाई की खातिर गांव में डेरा डाल लिया।

मूलरूप से सोमेश्वर के रहने वाले जोशी ने अगस्त 2013 में बजेला स्कूल में कार्यभार संभाला। अल्मोड़ा से 55 किमी दूर बजेला स्कूल तक पहुंचने के लिए छह किमी पैदल चलना होता है। इसे देखते हुए जोशी स्कूल के पास किराए के कमरे में रहने लगे। तब विद्यालय में दस बच्चे थे। जोशी ने रचनात्मक गतिविधियों व नवाचारी प्रयोग से बच्चों में रुचि जगाई। नतीजतन अभिभावकों ने प्राइवेट स्कूल में पढऩे वाले बच्चों का सरकारी स्कूल में दाखिला करा दिया। आज विद्यालय में 24 बच्चे पढ़ते हैं।


प्रावि बजेला के बच्चों ने ऐसे मॉडल तैयार किए हैं कि कान्वेंट
 स्कूलों के बच्चे भी देखते रहे जाएं।
शनिवार को होती हैं नवाचार गतिविधि
विद्यालय में शनिवार को आर्ट-क्राफ्ट, फ्रेब्रिक पेंटिंग, चित्रकला, कविता, कहानी लेखन में बीतता है। बच्चे कॉमिक्स तैयार करते हैं। बजेला जागरण नाम से निकलने वाली मासिक पत्रिका में क्षेत्रीय समाचारों व बच्चों की एक्टिविटी प्रकाशित होती है।

अंग्रेजी में नाटक प्रस्तुत करते हैं बच्चे 
अंग्रेजी के नाम से भय खाने वाले बच्चे आज इंग्लिश में नाटक का मंचन करते हैं। इंग्लिश बोलने का धारा प्रवाह ऐसा कि अंग्रेजी मीडियम स्कूल के बच्चे पीछे छूट जाए। बच्चों के बनाए मॉडल देखने लायक होते हैं। शिक्षक ने अपने खर्च से विद्यालय में प्रोजेक्टर लगाया है। पांच साल में विद्यालय की तस्वीर बदल गई। स्वयंसेवी संस्थाएं स्कूल से जुडऩे लगी हैं।