मैं कल अपने पाँच साल के बेटे काव्य को टीका लगवाने के लिए डॉक्टर के यहाँ जा रहा था। हम दोनों बाइक पे थे। आदतन वह पूरे रास्ते सवाल पूछता रहता है। आज वह सवाल नहीं पूछ रहा था। क्योंकि जाने कैसे उसे यह भान हो गया था कि जो रास्ता हमने चुना है वह डॉक्टर की तरफ जाता है। डॉक्टर के यहा जाने का मतलब उसके लिए टीका लगना ही होता है। इसलिए वह अपनी सहज जिज्ञासाओं को दबा या स्थगित कर के उन युक्तियों को सोच रहा था और एक-एक करके आजमा भी रहा था, जिससे डॉक्टर से छुटकारा मिल जाए। हम भी बाप ठहरे और लगातार आश्वासन दिए जा रहे थे कि आपको टीका तो बिलकुल नहीं लगेगा। हमने अपनी मुश्किल डॉक्टर पे डाल दी।
खैर, डॉक्टर के गए, टीका भी लगा, रोना-चिल्लाना, प्यारना-पुचकारना भी हुआ। बहरहाल हम वापस लौट रहे थे। चौराहे की बत्ती जो दूर से उल्टी गिनती गिनते हुए दिखाई दे रही थी, 3... 2... 1... तक पहुँचते - पहुँचते लाल हुई। हमने ब्रेक दबाए और रुक गए। बत्ती का दुबारा से हरे होने का इंतज़ार करने लगे, फिर से एक उल्टी गिनती के साथ। दूसरी तरफ के यातायात का हाल कुछ ऐसा था - मानो किसी ने सांस को प्राणायाम की तरह प्रयास से रोक रखा था और अगर अब न भी छोड़ते तो अपने आप छूट जाता। लगभग कपालभांति की तरह झटके से चौराहे ने ट्राफिक को फूँक दिया। कई बार ये चौराहे मुझे किसी योगी की तरह लगते हैं जो एक नाक से सांस को भर कर रोक रहे हैं और दूसरी तरफ से छोड़ रहे हैं। लेकिन लाख प्रयास से योग साधता नहीं।
टीके से उपजी नाराजगी की वजह से बाप बेटे में अभी तक अस्थाई रूप से बातचीत बंद थी। आखिर जिज्ञासा ने अबोले को तोड़ा और उसने सवाल किया, पापा, हम यहाँ रुक क्यो गए हैं?
इस सवाल ने अब पिता के अंदर एक शिक्षक को जगा दिया और शिक्षक ने मौका ताड़ लिया ट्राफिक रूल सिखाने का। मैंने कहा, जब सिग्नल लाल होता है तो हम रुक जाते हैं
हम क्यों रुक जाते हैं?
ताकि दूसरी तरफ के लोग आसानी से निकाल सकें।
अब हम कब चलेंगे?
जब सिग्नल ग्रीन होगा तब...
ग्रीन कब होगा?
जब बैकवर्ड काउंटिंग खत्म होगी।
मेरी ज्ञान-गीता चल रही थी। उल्टी घड़ी ने लगभग आधा ही फासला तय किया होगा। पीछे से एक फर्राटा बाइक आकर थोड़ी धीमी हुई। हॉर्न से पार निकल जाने के इरादे साफ जाहिर किए। हॉर्न की आवृति और उतार चढ़ाव की तत्परता में देश की तरक्की के ग्राफ के साथ आगे बढ़ जाने के इरादे साफ दिखाई दे रहे थे। आगे आकार बाइक पर आरूढ़ नौजवान ने दाएँ देखा यह इतमीनान करने के लिए कि कोई पुलिस वाला तो नहीं खड़ा है। दायीं ओर से तसल्ली हो गई कि इधर तरक्की में रुकावट नहीं खड़ी है। फिर बायीं ओर देखना जरूरी था, तरक्की में बाधाएँ दूसरी तरफ भी हो सकती हैं। बाईं और एक स्कूटी खड़ी थी और स्कूटी पर दो लड़कियां। बाइक सवार ने विकास के पहले मॉडल में तुरंत अपना अविश्वास सा प्रकट करते हुए अपनी बाइक को एक तरफ विराम दिया। देश की तरक्की की नई परिभाषा गढ़ी। इंजन को बंद करके नियम पालन में आस्था प्रकट की और अपनी बाइक के मिरर को स्कूटी पर फोकस करके संवैधानिक तौर तरीकों को अपनाना उचित समझा।
तरक्कीपसंदों की कमी कहीं भी नहीं होती है। पीछे से 'धूमÓ टाइप की दो-चार फटफटिया और आईं, आते ही सर्र से निकल गईं। निकलते ही लोगों को जागा गई कि कुछ भी हो तरक्की की असली पहचान जल्दी से आगे निकल जाना ही है। बाकी के वाहनों ने भी तरक्की के इसी मॉडल में ही अपनी बेहतरी समझी, उनमें जुंबिश हुई। काफिला आगे निकाल पड़ा। लाल बत्ती अभी भी सांस थामे हुए खड़ी थी। तभी बेटे सवाल किया-
अभी तो ग्रीन लाइट भी नहीं हुई फिर सब क्यूँ जा रहे हैं।
मेरे ज्ञान की गठरी में छेड़ हो चुका था। चौराहे पे जो मैंने पाठशाला खड़ी की थी वह ताश के पत्तों की मानिंद ढह गई थी। मेरे भीतर का अध्यापक छुट्टी ले चुका था। पिता का अक्स फिर उभर आया था। वाहनों के समुंदर का हिस्सा बनना ही बुद्धिमानी समझ पिता आगे बढ़ा। बेटा इस बार लगभग चिल्ला के बोला-
हम आगे क्यूँ जा रहे है, सिग्नल अभी ग्रीन नहीं हुआ है?
कुछ कहने सुनने को बाकी नहीं था। कहता भी क्या, कोई भी शब्द अब असरदार नहीं लग रहा था, वजनदार नहीं लग रहा था। जो मैंने सिखाना चाहा वह तो मालूम नहीं लेकिन इतना तो जरूर है कि कुछ न कुछ सीखना तो जरूर हुआ है। क्योंकि हर घटना से बच्चे कोई सीख तो गढ़ ही लेते हैं। वह क्या है- नियम पालन के लिए नागरिकता का कोरा किताबी पाठ, तेज़ रफ्तार का पागलपन, एक पिता की कथनी और करनी का दोहरापन? या कुछ और ?
इन ट्राफिक सिगनल्स पर यूं तो मिनट आधा-एक मिनट का विराम होता है लेकिन इन वकफ़ों में ही बहुत से मासूमों के मन में बहुत सारी अवधारणाएँ बनती मिटती हैं। और कुछ पत्थर पे स्थायी इबारत की तरह भी लिख जाती हैं।
(दलीप वैरागी के कथोपकथन ब्लॉग से- मो. 09928986983)
खैर, डॉक्टर के गए, टीका भी लगा, रोना-चिल्लाना, प्यारना-पुचकारना भी हुआ। बहरहाल हम वापस लौट रहे थे। चौराहे की बत्ती जो दूर से उल्टी गिनती गिनते हुए दिखाई दे रही थी, 3... 2... 1... तक पहुँचते - पहुँचते लाल हुई। हमने ब्रेक दबाए और रुक गए। बत्ती का दुबारा से हरे होने का इंतज़ार करने लगे, फिर से एक उल्टी गिनती के साथ। दूसरी तरफ के यातायात का हाल कुछ ऐसा था - मानो किसी ने सांस को प्राणायाम की तरह प्रयास से रोक रखा था और अगर अब न भी छोड़ते तो अपने आप छूट जाता। लगभग कपालभांति की तरह झटके से चौराहे ने ट्राफिक को फूँक दिया। कई बार ये चौराहे मुझे किसी योगी की तरह लगते हैं जो एक नाक से सांस को भर कर रोक रहे हैं और दूसरी तरफ से छोड़ रहे हैं। लेकिन लाख प्रयास से योग साधता नहीं।
टीके से उपजी नाराजगी की वजह से बाप बेटे में अभी तक अस्थाई रूप से बातचीत बंद थी। आखिर जिज्ञासा ने अबोले को तोड़ा और उसने सवाल किया, पापा, हम यहाँ रुक क्यो गए हैं?
इस सवाल ने अब पिता के अंदर एक शिक्षक को जगा दिया और शिक्षक ने मौका ताड़ लिया ट्राफिक रूल सिखाने का। मैंने कहा, जब सिग्नल लाल होता है तो हम रुक जाते हैं
हम क्यों रुक जाते हैं?
ताकि दूसरी तरफ के लोग आसानी से निकाल सकें।
अब हम कब चलेंगे?
जब सिग्नल ग्रीन होगा तब...
ग्रीन कब होगा?
जब बैकवर्ड काउंटिंग खत्म होगी।
मेरी ज्ञान-गीता चल रही थी। उल्टी घड़ी ने लगभग आधा ही फासला तय किया होगा। पीछे से एक फर्राटा बाइक आकर थोड़ी धीमी हुई। हॉर्न से पार निकल जाने के इरादे साफ जाहिर किए। हॉर्न की आवृति और उतार चढ़ाव की तत्परता में देश की तरक्की के ग्राफ के साथ आगे बढ़ जाने के इरादे साफ दिखाई दे रहे थे। आगे आकार बाइक पर आरूढ़ नौजवान ने दाएँ देखा यह इतमीनान करने के लिए कि कोई पुलिस वाला तो नहीं खड़ा है। दायीं ओर से तसल्ली हो गई कि इधर तरक्की में रुकावट नहीं खड़ी है। फिर बायीं ओर देखना जरूरी था, तरक्की में बाधाएँ दूसरी तरफ भी हो सकती हैं। बाईं और एक स्कूटी खड़ी थी और स्कूटी पर दो लड़कियां। बाइक सवार ने विकास के पहले मॉडल में तुरंत अपना अविश्वास सा प्रकट करते हुए अपनी बाइक को एक तरफ विराम दिया। देश की तरक्की की नई परिभाषा गढ़ी। इंजन को बंद करके नियम पालन में आस्था प्रकट की और अपनी बाइक के मिरर को स्कूटी पर फोकस करके संवैधानिक तौर तरीकों को अपनाना उचित समझा।
तरक्कीपसंदों की कमी कहीं भी नहीं होती है। पीछे से 'धूमÓ टाइप की दो-चार फटफटिया और आईं, आते ही सर्र से निकल गईं। निकलते ही लोगों को जागा गई कि कुछ भी हो तरक्की की असली पहचान जल्दी से आगे निकल जाना ही है। बाकी के वाहनों ने भी तरक्की के इसी मॉडल में ही अपनी बेहतरी समझी, उनमें जुंबिश हुई। काफिला आगे निकाल पड़ा। लाल बत्ती अभी भी सांस थामे हुए खड़ी थी। तभी बेटे सवाल किया-
अभी तो ग्रीन लाइट भी नहीं हुई फिर सब क्यूँ जा रहे हैं।
मेरे ज्ञान की गठरी में छेड़ हो चुका था। चौराहे पे जो मैंने पाठशाला खड़ी की थी वह ताश के पत्तों की मानिंद ढह गई थी। मेरे भीतर का अध्यापक छुट्टी ले चुका था। पिता का अक्स फिर उभर आया था। वाहनों के समुंदर का हिस्सा बनना ही बुद्धिमानी समझ पिता आगे बढ़ा। बेटा इस बार लगभग चिल्ला के बोला-
हम आगे क्यूँ जा रहे है, सिग्नल अभी ग्रीन नहीं हुआ है?
कुछ कहने सुनने को बाकी नहीं था। कहता भी क्या, कोई भी शब्द अब असरदार नहीं लग रहा था, वजनदार नहीं लग रहा था। जो मैंने सिखाना चाहा वह तो मालूम नहीं लेकिन इतना तो जरूर है कि कुछ न कुछ सीखना तो जरूर हुआ है। क्योंकि हर घटना से बच्चे कोई सीख तो गढ़ ही लेते हैं। वह क्या है- नियम पालन के लिए नागरिकता का कोरा किताबी पाठ, तेज़ रफ्तार का पागलपन, एक पिता की कथनी और करनी का दोहरापन? या कुछ और ?
इन ट्राफिक सिगनल्स पर यूं तो मिनट आधा-एक मिनट का विराम होता है लेकिन इन वकफ़ों में ही बहुत से मासूमों के मन में बहुत सारी अवधारणाएँ बनती मिटती हैं। और कुछ पत्थर पे स्थायी इबारत की तरह भी लिख जाती हैं।
(दलीप वैरागी के कथोपकथन ब्लॉग से- मो. 09928986983)