Wednesday, 19 July 2017

मेरी डायरी का एक पन्ना-योगी चौराहे

मैं कल अपने पाँच साल के बेटे काव्य को टीका लगवाने के लिए डॉक्टर के यहाँ जा रहा था। हम दोनों बाइक पे थे। आदतन वह पूरे रास्ते सवाल पूछता रहता है। आज वह सवाल नहीं पूछ रहा था। क्योंकि जाने कैसे उसे यह भान हो गया था कि जो रास्ता हमने चुना है वह डॉक्टर की तरफ जाता है। डॉक्टर के यहा जाने का मतलब उसके लिए टीका लगना ही होता है। इसलिए वह अपनी सहज जिज्ञासाओं को दबा या स्थगित कर के उन युक्तियों को सोच रहा था और एक-एक करके आजमा भी रहा था, जिससे डॉक्टर से छुटकारा मिल जाए। हम भी बाप ठहरे और लगातार आश्वासन दिए जा रहे थे कि आपको टीका तो बिलकुल नहीं लगेगा। हमने अपनी मुश्किल डॉक्टर पे डाल दी।
खैर, डॉक्टर के गए, टीका भी लगा, रोना-चिल्लाना, प्यारना-पुचकारना भी हुआ। बहरहाल हम वापस लौट रहे थे। चौराहे की बत्ती जो दूर से उल्टी गिनती गिनते हुए दिखाई दे रही थी, 3... 2... 1... तक पहुँचते - पहुँचते लाल हुई। हमने ब्रेक दबाए और रुक गए। बत्ती का दुबारा से हरे होने का इंतज़ार करने लगे, फिर से एक उल्टी गिनती के साथ। दूसरी तरफ के यातायात का हाल कुछ ऐसा था - मानो किसी ने सांस को प्राणायाम की तरह प्रयास से रोक रखा था और अगर अब न भी छोड़ते तो अपने आप छूट जाता। लगभग कपालभांति की तरह झटके से चौराहे ने ट्राफिक को फूँक दिया। कई बार ये चौराहे मुझे किसी योगी की तरह लगते हैं जो एक नाक से सांस को भर कर रोक रहे हैं और दूसरी तरफ से छोड़ रहे हैं। लेकिन लाख प्रयास से योग साधता नहीं।
टीके से उपजी नाराजगी की वजह से बाप बेटे में अभी तक अस्थाई रूप से बातचीत बंद थी। आखिर जिज्ञासा ने अबोले को तोड़ा और उसने सवाल किया, पापा, हम यहाँ रुक क्यो गए हैं?
इस सवाल ने अब पिता के अंदर एक शिक्षक को जगा दिया और शिक्षक ने मौका ताड़ लिया ट्राफिक रूल सिखाने का। मैंने कहा, जब सिग्नल लाल होता है तो हम रुक जाते हैं
हम क्यों रुक जाते हैं?
ताकि दूसरी तरफ के लोग आसानी से निकाल सकें।
अब हम कब चलेंगे?
जब सिग्नल ग्रीन होगा तब...
ग्रीन कब होगा?
जब बैकवर्ड काउंटिंग खत्म होगी।
मेरी ज्ञान-गीता चल रही थी। उल्टी घड़ी ने लगभग आधा ही फासला तय किया होगा। पीछे से एक फर्राटा बाइक आकर थोड़ी धीमी हुई। हॉर्न से पार निकल जाने के इरादे साफ जाहिर किए। हॉर्न की आवृति और उतार चढ़ाव की तत्परता में देश की तरक्की के ग्राफ के साथ आगे बढ़ जाने के इरादे साफ दिखाई दे रहे थे। आगे आकार बाइक पर आरूढ़ नौजवान ने दाएँ देखा यह इतमीनान करने के लिए कि कोई पुलिस वाला तो नहीं खड़ा है। दायीं ओर से तसल्ली हो गई कि इधर तरक्की में रुकावट नहीं खड़ी है। फिर बायीं ओर देखना जरूरी था, तरक्की में बाधाएँ दूसरी तरफ भी हो सकती हैं। बाईं और एक स्कूटी खड़ी थी और स्कूटी पर दो लड़कियां। बाइक सवार ने विकास के पहले मॉडल में तुरंत अपना अविश्वास सा प्रकट करते हुए अपनी बाइक को एक तरफ विराम दिया। देश की तरक्की की नई परिभाषा गढ़ी। इंजन को बंद करके नियम पालन में आस्था प्रकट की और अपनी बाइक के मिरर को स्कूटी पर फोकस करके संवैधानिक तौर तरीकों को अपनाना उचित समझा।
तरक्कीपसंदों की कमी कहीं भी नहीं होती है। पीछे से 'धूमÓ टाइप की दो-चार फटफटिया और आईं, आते ही सर्र से निकल गईं। निकलते ही लोगों को जागा गई कि कुछ भी हो तरक्की की असली पहचान जल्दी से आगे निकल जाना ही है। बाकी के वाहनों ने भी तरक्की के इसी मॉडल में ही अपनी बेहतरी समझी, उनमें जुंबिश हुई। काफिला आगे निकाल पड़ा। लाल बत्ती अभी भी सांस थामे हुए खड़ी थी। तभी बेटे सवाल किया-
अभी तो ग्रीन लाइट भी नहीं हुई फिर सब क्यूँ जा रहे हैं।
मेरे ज्ञान की गठरी में छेड़ हो चुका था। चौराहे पे जो मैंने पाठशाला खड़ी की थी वह ताश के पत्तों की मानिंद ढह गई थी। मेरे भीतर का अध्यापक छुट्टी ले चुका था। पिता का अक्स फिर उभर आया था। वाहनों के समुंदर का हिस्सा बनना ही बुद्धिमानी समझ पिता आगे बढ़ा। बेटा इस बार लगभग चिल्ला के बोला-
हम आगे क्यूँ जा रहे है, सिग्नल अभी ग्रीन नहीं हुआ है?
कुछ कहने सुनने को बाकी नहीं था। कहता भी क्या, कोई भी शब्द अब असरदार नहीं लग रहा था, वजनदार नहीं लग रहा था। जो मैंने सिखाना चाहा वह तो मालूम नहीं लेकिन इतना तो जरूर है कि कुछ न कुछ सीखना तो जरूर हुआ है। क्योंकि हर घटना से बच्चे कोई सीख तो गढ़ ही लेते हैं। वह क्या है- नियम पालन के लिए नागरिकता का कोरा किताबी पाठ, तेज़ रफ्तार का पागलपन, एक पिता की कथनी और करनी का दोहरापन? या कुछ और ?
इन ट्राफिक सिगनल्स पर यूं तो मिनट आधा-एक मिनट का विराम होता है लेकिन इन वकफ़ों में ही बहुत से मासूमों के मन में बहुत सारी अवधारणाएँ बनती मिटती हैं। और कुछ पत्थर पे स्थायी इबारत की तरह भी लिख जाती हैं।

(दलीप वैरागी के कथोपकथन ब्लॉग से- मो. 09928986983)

Monday, 17 July 2017

जागेश्वर : महामृत्युंजय रूप में पूजे जाते हैं भगवान शिव


जागेश्वर धाम का मनोहारी दृश्य।
दर्शन श्री महामृत्युंजय।
अल्मोड़ा जिले में जागेश्वर धाम और द्वाराहाट में महामृत्युंजय मंदिर आस्था का प्रमुख केंद्र हैं। कत्यूरी वंश में निर्मित जागेश्वर धाम के महामृत्युंजय मंदिर का वर्णन शिवपुराण, स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि ग्रंथों में मिलता है।
नागर शैली में निर्मित जागेश्वर के महामृत्युंजय मंदिर में श्रद्धालु अकाल मृत्यु को टालने और दीर्घायु के लिए महामृत्युंजय पाठ और यज्ञ करते हैं। मान्यता है कि महामृत्युंजय मंदिर में पूजा से मनुष्य के दैहिक, दैविक और भौतिक दु:ख दूर होते हैं। अल्प मृत्यु, काल सर्प दोष निवारण, रोग-शोक और शत्रु भय से बचने के लिए श्रद्धालु पूरे वर्ष यहां पूजा-अर्चना को आते हैं। जागेश्वर के महामृत्युंजय मंदिर को जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने यहां आकर मंदिर की मान्यता को पुनस्र्थापित किया था।
वहीं, द्वाराहाट का मृत्युंजय मंदिर नागर शिखर शैली में निर्मित है। पूर्वाभिमुखी यह मंदिर त्रिरथ योजना से बनाया गया है। पुरातत्व विभाग इस मंदिर को 11वीं से 12वीं शताब्दी का मानता है। लोक मान्यता के अनुसार मृत्यु से भयभीत मनुष्य को अभयदान प्रदान करने वाले भगवान शिव भक्तों की सच्चे मन से मांगी मुराद पूरी करते हैं। 

श्रावण में लगता है आस्था को मेला

जागेश्वर धाम में श्रावणी मेले का दृश्य।
जागेश्वर धाम में श्रावण में पूरे महीने मेला लगता है। श्रावण के सोमवार को यहां पाव धरने की जगह नहीं मिलती। जागेश्वर महामृत्युंजय मंदिर में श्रावण मास की चतुर्दशी और महाशिवरात्रि को की गई पूजा का विशेष महत्व माना गया है। महाशिवरात्रि और श्रावण चतुर्दशी को महिलाएं संतान प्राप्ति के लिए दीपक अनुष्ठान का कठिन संकल्प लेती हैं। महिलाएं पूरी रात दीपक हाथ में लेकर तपस्या करती हैं।








Saturday, 15 July 2017

हरेले के बहाने: आमा! अब तू नहीं आती, सिर्फ हरेला आता है..


घरों में टोकरियों में बोया गया हरेला।
हरेला आते ही सबसे पहले मुझे आमा याद आती है। 15 साल गुजर गए आमा हमारे बीच नहीं है। हम छोटे से थे। आमा ताऊजी के परिवार के साथ रहती। 95-96 की उम्र में हमें हरेला पूजने आठ-दस भिड़ (खेत) चढ़कर आ जाती। हममें जैसी उसकी जान बसती थी।
सांस चढऩे से हांफते हुए कहतीं- नातियो, बैठ, त्वे हरया्व पूजि दियो। नान् का छै? भिडऩ् न ऊकइन इजा, कि पत् अघिलै छौ-न्हात्यो। तेरि मै हरया्व पुजि गै न? कहते हुए आमा फफक कर रो पड़ती। मैंने हरेले के आशीष वचन पहली बार आमा से ही सुने थे। आमा आशीष तब देती थी, उसका अर्थ आज जाकर समझ पाया हूं। आमा तूने ही तो बताया कि पहला हर्याला गोलज्यू और गंगनाथ ज्यू को चढ़ाया जाता है। और भी बहुत बातें हैं आमा, फिर कभी बतियाऊंगा.. अभी हरेले के आशीष पर आता हूं-

लाग हरिया्व, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये, यो दिन-मास भेटनैं रये, दुब जस पंगुरिए, पाति जस हऊरिए, स्याव जस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, धरती चार चकाव, अगासाक चार उकाव है जये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंगा ज्यू में पांणि छन तक, सिल पिसी भात खाये, जांठ टेकी झाड़ जाए..
टोकरी में हरेला।
अर्थात हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे,  बग्वाल तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीते रहो, जाग्रत रहो, यह शुभ दिन, माह तुम्हारी जिन्दगी में आते रहें, दूब घास की तरह फैलो, पाति की तरह पनपो, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, धरती को चीर ले जाने वाले हल की तहत बलवान बनो, धरती की तरह चौड़े हो जाओ, आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, हिमालय में बर्फ और गंगाजी में पानी रहने तक जीवित रहो। इतनी अधिक उम्र जियो कि भात भी पीस कर खाओ, लाठी टेककर शौच जाने तक की उम्र तक जीओ..
यह वह आशीष वचन हैं, जो कुमाऊं अंचल में हरेले के दिन घर के बड़े सदस्य सात अनाजों की पीली पत्तियों (हरेले के तिनड़ों) को बच्चों, युवाओं के सिर में रखते हुए देते हैं। इन ठेठ कुमाऊंनी आशीष में त्रेता युग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान श्रीराम को दी गईं आकाश की तरह ऊंंचे होने और धरती की तरह चौड़े होनेÓ की आशीष का भाव भी है। घर से दूर रहने वाले परिजन को चि_ी से हरेले के तिनके भेजने का चलन था, सुंदर शहर में रहने वाला व्यक्ति बड़े भाव से इन तिनकों को शिरोधार्य करता। संचार के आज के युग में अब यह गुजरे जमाने की बात हो गया है। 

तीन हरेले मनाने की परंपरा
कुमाऊं में वर्ष में तीन बार, चैत्र माह के प्रथम दिन, श्रावण माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाड़ माह में और आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है। इसी प्रकार नौ दिन बाद चैत्र माह की नवमी, श्रावण माह के प्रथम दिन और दशहरे के दिन काटा जाता है। श्रावण का हरेला शिव को समर्पित माने जाने वाले श्रावण मास की संक्रांति को मनाया जाता है। सूर्यदेव इसी दिन दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं। 

हल्द्वानी के एक स्कूल में हाथों में हरेला लिए बच्चे।
सप्त धान्यों का होता है प्रयोग
हरेले के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत, कौंड़ी, मादिरा, धान और भट्ट आदि के बीज का प्रयोग होता है। घर के भीतर पवित्र जगह में खासकर मंदिर के पास रिंगाल की टोकरियों या लकड़ी के बक्सों में बोया जाता है। जितने बीज लिए जाते हैं उसे उतने ही परतों में बोया जाता है। हरेला बोने के लिए साफ-सुथरी जगह से मिट्टी लाई जाती है। सुबह-शाम पूजा के बाद हरेले में पानी का छिड़काव किया जाता है।

अंधेरे में होता पल्लवित
हरेले की खास बात है कि इसे अंधेरे कोने में रखा जाता है। धूप नहीं मिलने से पौधे पीले तिनकों के रूप में दिखते हैं। पीला रंग परिपक्वता का प्रतीक माना गया है, शायद इसीलिए हरेले को अंधेरे कोने में रखा जाता है। 10वें दिन यानी संक्रांति को इन्हें घर का बुजुर्ग सदस्य या महिला काटती है। घर के मंदिर, गांव के इष्ट के बाद परिवार के सदस्यों को पूजा जाता है। 

प्रकृति और खेती से जुड़ाव
माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। सूर्य की रोशनी के बगैर विपरीत परिस्थितियों में पल्लवित हुआ हरेला संघर्ष में बेहतर पनपने की प्रेरणा देता है। हरेले को अच्छी कृषि उपज, हरियाली, धनधान्य, सुख संपन्नता से भी जोड़ा जाता है। 

पौराणिक मान्यता भी है जुड़ी
हरेले को लेकर पौराणिक मान्यता भी हैं। कहा जाता है कि देवी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था। इसलिए वह अनाज के पौधों यानी हरेले के रूप में गौरा रूप में अवतरित हुईं। हरेले को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस दिन शिव पार्वती की पूजा का प्राविधान है।

हल्द्वानी में हरेले की पूजा करती आमा।
डिकारे पूजन का प्रावधान
हरेले की पहली शाम डिकारे बनाने का प्राविधान है। सामान्यतया लाल मिट्टी से शिव, गौरा और गणेश जी की प्रतीक बनाए जाते हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। कुछ जगह केले के तने, भृंगराज आदि से भी डिकारे बनाने का चलन है। इन्हें वनस्पतियों के प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। शिव सामान्यता नीले तथा गौरा सफेद बनाई जाती हैं। 

मानव को प्रकृति से जोड़ता है हरेला
हरेला जिस जिस टोकरी में बोया जाता है वह धरती का स्वरूप है। हरेला जितना सुंदर होगा, धरती भी उसी तरह हरी-भरी रहेगी। संस्कृति कर्मी और लेखक जुगल किशोर पेटशाली बताते हैं, हरेला अच्छा हो इसी कामना से काटने से पहले अगली शाम उसकी गुड़ाई होती है। तिलक लगाकर पूजा जाता है तो रक्षा तागे से लपेटा (सुरक्षित करना) जाता है। मानव को प्रकृति से जोडऩे की यह अद्भुत परंपरा बुजुर्गों के समय से चली आ रही है।