Sunday, 19 July 2020

उम्‍मीदों के 'भास्‍कर' का उदय : बागेश्‍वर की घाटी में 40 साल बाद गूंजे हुड़किया बौल के स्‍वर

रोपाई के बीच हुड़किया बौल लगाते भास्‍कर। बागेश्‍वर की घाटी
में 40 साल बाद यह दृश्‍य दिखे हैं।

उत्तराखंड में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही है। हुड़किया बौल इसमें प्रमु ख है। खेती और सामूहिक श्रम से जुड़ी यह परंपरा सिमटती कृषि के साथ ही कम होती चली गई। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि अधिकांश इलाकों में हुड़किया बौल की परंपरा समाप्त हो चुकी है। आज हुड़किया बौल गायकी वाले कलाकारों को खोजना मुश्किल है। ऐसे मुश्किल समय में बागेश्वर जिले के 22 वर्षीय भास्कर भौर्याल ने हुड़किया बौल परंपरा के साथ आंचलिक लोक गायकी की एक विधा को जीवंत करने का बीड़ा उठाया है। बागेश्वर के रीमा क्षेत्र में 40 साल बाद सुनाई दे रहे हुड़किया बौल के बोल सकारात्मक बदलाव की उम्मीद जगा रहे हैं। भास्‍कर ने समाज को उम्‍मीद का नया सूरज दिखाया है।

बागेश्वर जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर कुरौली गांव के रहने वाले भास्कर सोबन सिंह जीना कैंपस अल्मोड़ा से फाइन आर्ट की पढ़ाई कर रहे हैं। मां जानकी देवी आंचलिक लोक गायकी की समृद्ध विधा मानी जाने वाली न्योली गाती थीं। बचपन से मां को सुनते हुए भास्कर को भी इसका शौक पैदा हो गया। इस शौक ने भास्‍कर के हाथ में हुड़का ला दिया। उत्‍तराखंडी लोक संस्‍कृति को समझने वालों के लिए हुड़का किसी परिचय का मोहताज नहीं है। पढऩे व कविता रचने के शौकीन भास्कर ने इंटरनेट पर अपनी लोक गायकी के बारे में पड़ा। भास्कर बताते हैं कि हाथ में हुड़का लिए बुजुर्ग के साथ स्वर से स्वर मिलाते हुए सामूहिक रूप से धान की रोपाई लगाने की कल्पना ने इसे सीखने की जिज्ञासा जगा दी। बचपन में मां के साथ पास के गांव में अपने ननिहाल गए थे। वहां एक बुजुर्ग कलाकार धर्म सिंह रंगीला से मिलना हुआ। रंगीला हुड़किया बौल के गाते थे। भास्‍कर ने उनसे हुड़क‍िया बौल की बारीकी समझी। गीतों के बोल, गाने की लय पकड़ने के लिए वह अक्‍सर ननिहाल चले जाया करते। ननि‍हाल में नाना-नानी, मामा-मामी के साथ कम पड़ोस के रंगीला बूबू के साथ अधिक समय बीतता। तीन साल पहले रंगीला बूबू का निधन हो गया। तब तक भास्कर ठान चुके थे कि इस परंपरा को अब वह खुद आगे बढ़ाएंगे।


यह है हुड़किया बौल

हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई व मडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं। पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है। फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं। हुड़के को थाम देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं। हुड़के की गमक और अपने बोलों से कलाकार काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है।

महिलाओं में उत्‍साह भरते हुए भास्‍कर

जो मैं कर रहा हूं उसे सभी को करना चाहिए : भास्‍कर

युवा बौल गायक भास्‍कर भौर्याल कहते हैं कि कुमाऊं के लोक का अतीत अत्यंत समृद्ध रहा है। यहां लोक गीतों के ही कई आयाम हैं। लोकगीतों को इतने सलीके से तरासा गया है कि इनमें जीवन का सार दिखता है। पेशेवर बौल गायकों के बराबर मैं कभी नहीं जा सकता, मगर अपनी पुरातन विरासत को संरक्षित करने और उसे नई पीढ़ी तक ले जाने का प्रयास सभी को करना चाहिए। मैं यही कर रहा हूं। भास्‍कर के यह शब्‍द उम्‍मीद जगाते हैं। भास्‍कर के जज्‍बे का सलाम।

हुड़किया बौल के स्वर

सेलो दिया बिदो हो भुम्‍याल देवा
दैंणा है जाया हो खोई का गणेशा
देवा ज्‍यू वर दैंण ह्वे जाया ।
दैंणा है जाया हो मोरी नरैणा
दैंणा है जाया हो पंचनाम देवा
सेवाे दिया बिदो हो भुम्‍याल देवा।


Monday, 13 July 2020

न समझा कोई मेरा वजूद, अब तो पन्‍ने से स्याही छूटने को आतुर...

'बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो, ऐ काश हमारी आंखों का इक्कीसवां ख्वाब तो अच्छा हो।' शायर गुलाम मोहम्मद कासिर का ये शेर किताबों की एहमियत बतलाता है, मगर अपने शहर को शेर-ओ-शायरी के अलफाज, किताबों की उपयोगिता कहां समझ आती है। कम से कम यहां के प्रतिनिधि, प्रशासनिक अफसर तो इसे नहीं समझते। समझते तो शहर में 'नो शाॅपिंग माॅल, सेव लाइब्रेरी' के नारे न गूंजते। यूपी के पहले मुख्यमंत्री रहते हुए पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने 15 अक्टूबर 1953 को शहर के बीचोंबीच जिस लाइब्रेरी की आधार शिला रखी थी, उस जगह पर शाॅपिंग माॅल खड़ा करने की बात न चलती। शहर के दुर्भाग्य से पिछले कुछ दिनों से यही हो रहा है।

रोडवेज स्टेशन से लगी गोविंद बल्लभ पंत लाइब्रेरी किसी दौर में किताबों के कद्रदानों का ठिकाना थी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले नौजवान, साहित्यप्रेमी बुजुर्ग यहां आना नित्य कर्म समझते। अनदेखी ने इसे 'अनाथ' बना दिया। 2006 में तत्कालीन पालिकाध्यक्ष हेमंत बगड़वाल ने लाइब्रेरी के जीर्णोद्धार कार्य का शिलान्यास किया। दो साल बाद तब की पालिकाध्यक्ष रहीं रेनू अधिकारी ने लाइब्रेरी पुनः शहर को अर्पित की। स्वरूप बदला, लाइब्रेरी की जगह बढ़ी, पर किताबें सीमित होती चली गईं। आज स्थिति यह है कि लाइब्रेरी की शीशे की अलमारी में बंद चंद किताबें हाथों में आने को छटपटा रही हैं। कमरे का ताला साफ-सफाई के लिए ही खुलता है। गैलरी में लकड़ी की अलमारियां दीवार की तरफ मुंह किए खड़ी हैं। खाली अलमारी की तरफ जब कोई झांके न तो मुंह फेर लेना लाजिमी है। हो सकता है उन्हें खुद पर शर्मिंगदी आती हो..।

दीवार पर लाइब्रेरी के खुलने का समय मोटे अक्षरों में दर्ज है। सुबह आठ से दस, शाम चार से आठ बजे तक लाइब्रेरी खुलती है। यह ऐसी लाइब्रेरी है जहां पढ़ने के लिए पुस्तक साथ लानी होती है। हां, यहां बैठने के लिए चंद कुर्सियां और मेज जरूर उपलब्ध है। पंखा बेशक नहीं है, मगर पंखे की हवा से किताब के पन्ने पलट न जाएं इसके लिए पत्थर के टुक्कड़ों के पेपर वेट जरूर मिल जाएंगे। शहरवासियों को अपने आसपास, देश-दुनिया की ताजा खबरों से अवगत कराने के लिए समाचार पत्र जरूरी होते हों, मगर यहां अखबारों के नाम पर दो दशक पुरानी 'रद्दी' पोटलियों में बंद है। लाइब्रेरी की ऐसी बदहाली पर किसी को भी तरस जा जाए।

बावजूद इसके यहां स्‍कूली बच्‍चों का आना होते रहा है। अभी भले कोरोना काल है, मगर जब कोरोना नहीं था और लाइब्रेरी के बराबर के प्रेस क्‍लब दफ्तर में यदा-कदा हम बैठे हुआ करते तो कई बच्‍चे पूछने आ जाते कि लाइब्रेरी कहां है, कितने बजे खुलती है जैसे सवाल लेकर। मुझे याद है कि हमारे साथी भुपेश कन्‍नौजिया और मैंने लाइब्रेरी के दरवाजे पर लिख दिया था 'लाइब्रेरी इधर है।' बाकायदा ऐराे भी बना दिया। उस पर लाइब्रेरी खुलने का समय भी दर्ज कर दिया। बहरहाल, हुक्मरानों को इसे समझना होगा। शायर आदिल मंसूरी ने आगाह किया है- 'किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को, कागज बिखर रहे हैं पुरानी किताब के।'
-गणेश पांडे