Monday, 14 October 2019

रिटायर्ड आयकर आयुक्त के हाथों का हुनर, पेंसिल से उकेरते महापुरुषों के चित्र

इरादे अगर जवां हों तो मन में पल्लवित होते शौक के पूरा होने में ढलती उम्र भी बाधा नहीं बनती। जरूरत होती है तो केवल शिद्दत के साथ जुटने की। अगर जुट गए तो कारवां बढ़ते जाता है। डॉ. सतीश चंद्र अग्रवाल ऐसा ही नाम है। डॉ. अग्रवाल पेंटिंग बनाने के स्कूली दिनों के शौक को 66 की उम्र में साकार कर रहे हैं।
हल्द्वानी के नैनीताल रोड स्थित वैशाली कालोनी में रहने वाले अग्रवाल को स्कूली दिनों से पेंटिंग का शौक था। जब समय मिलता सादे कागज पर पेंसिल से महापुरुषों के रेखाचित्र बनाते। 1972 में एमबीपीजी कॉलेज से स्नातक करने के बाद एलएलबी की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चले गए। बाद में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और फिर नौकरी के चलते पेंटिंग का शौक कैनवास पर खुलकर नहीं उतर पाया। 2013 में आयकर आयुक्त पद से रिटायर्ड हुए डॉ. अग्रवाल अपने बचपन के शौक को अब पूरा करने में लगे हैं। वर्तमान में इनके पास सौ से अधिक पेंटिंग बनी हैं। कई पेंटिंग दूसरों को भेंट कर चुके हैं। डॉ. अग्रवाल की परिकल्पना पर बरेली रोड स्थित लटूरिया आश्रम में आकर्षक हनुमान झांकी तैयार की गई है।


पेंसिल, रबर का करते हैं प्रयोग
डॉ. अग्रवाल पेंसिल व रबर की मदद से स्केच तैयार करते हैं। उन्होंने पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, महात्मा गांधी, डॉ. अब्दुल कलाम, सरदार पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, आइंस्टीन, बिस्मिल्ला खां, जीबी पंत समेत कई महापुरुषों के अलावा नीम करौली महाराज, लटुरिया बाबा, महादेव गिरि जैसे प्रसिद्ध संतों के रेखाचित्र व मार्बल की मूर्तियां बताई हैं।

लाल बहादुर शास्त्री की बनाई पहली पेंटिंग
रामलीला मोहल्ले में डा. अग्रवाल का पुस्तैनी घर था। नजदीक के केमू स्टेशन के पास लाल बहादुर शास्त्री के चाचा सदगुरु शरण श्रीवास्तव रहते थे। वह एमबी इंटर कॉलेज में प्रवक्ता थे। 1968 में सदगुरु ने अग्रवाल की सुंदर पेंटिंग देखकर उनसे बाल बहादुर शास्त्री का चित्र बनाने को कहा। यहां से पेंटिंग का शौक जुनून में परिवर्तित हो गया।

कई काव्य संग्रह का प्रकाशन
साहित्य के प्रति रुचि के चलते अग्रवाल ने 1995 में मॉरिशस के ङ्क्षहदी साहित्य में शोध किया। चितवन, आकाश अपना-अपना काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा कई पत्रिकाओं का संपादन, जीवन लेखन कर चुके हैं।

Monday, 7 October 2019

पारंपरिक ऐपण कला में पेंटिंग विधा का समावेश, हल्द्वानी की अभिलाषा ने कुमाऊंनी ऐपण को दिया नया आयाम


कल्पनाएं सभी के मस्तिष्क में उभरती हैं, लेकिन उसे साकार कुछ ही लोग कर पाते हैं। मगर जो कर पाते हैं, उनका काम दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाता है। ऐपण कला को नया आयाम देने वाली हल्द्वानी की अभिलाषा इसी प्रेरणा का नाम हैं। पारंपरिक ऐपण कला के साथ पेंटिंग विधा का मिश्रण करने वाली अभिलाषा ने खूबसूरत कल्पनाओं को कैनवास पर उतारकर जीवंत किया है।
रामपुर रोड स्थित प्रेम विहार कालोनी की रहने वाली अभिलाषा पालीवाल (30) ऐपण विधा के जरिये उत्तराखंडी लोक संस्कृति को आगे बढ़ाने में जुटी हैं। अभिलाषा को ऐपण पेटिंग के साथ हाथ से निर्मित क्राफ्ट, पारंपरिक आर्ट, वुडन पेंटिंग व कैनवास पेंटिंग बनाने में महारथ है। उनकी पेटिंग में उत्तराखंडी पारंपरिक वाद्ययंत्र, पहाड़ का लोक जीवन, वेशभूषा के साथ देवी-देवताओं के चित्र शामिल होते हैं। इंस्टाग्राम के जरिये लोगों में पहचान बनाने वाली अभिलाषा को अब पेटिंग के लिए डिमांड भी आने लगी है।




फैशन डिजाइनिंग का मिला लाभ : ग्रेजुएशन करने के बाद अभिलाषा ने देहरादून से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया। जहां ड्रेस डिजाइनिंग की बारीकी सीखी। अभिलाषा कहती हैं बैग पर ऐपण उकेरने का प्रयोग लोगों का काफी पसंद आ रहा है। अभिलाषा ने जनवरी में काम शुरू किया। दस माह में ही लोगों से पेटिंग की डिमांड आने लगी। अभिलाषा ने लोगों की डिमांड पर आकर्षक ऐपण पेटिंग तैयार कर लोगों को देना शुरू कर दिया है।

पति ने किया प्रोत्साहित : अभिलाषा कहती हैं कि पति अमित पालीवाल ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। अमित अकाउंटेंट हैं और हल्द्वानी में जॉब करते हैं।

Thursday, 3 October 2019

कुमाऊंनी नहीं, कुमाऊं की रामलीला कहिये

कुमाऊं अंचल में प्रचलित रामलीला गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। इसमें शास्त्रीयता का पुट मिलता है। कहा जाता है रामलीला प्रदर्शन की परंपरा ब्रज से होते हुए कुमाऊं तक पहुंची। रामलीला की शैली, गायन, ताल, छंद का जो नाट्य रूप था, इसी से अभिप्रेरित होकर कुमाऊं के विद्वानों के मन में रामलीला को नया रूप देने का विचार आया और यहीं से 'कुमाऊं की रामलीला' उभर कर आई।


कुमाऊं की रामलीला के मर्मज्ञ इस बात को मानते हैं कि ब्रज की रासलीला के अतिरिक्त 'नौटंकी शैली' व पारसी रंगमंच का प्रभाव भी कुमाऊं की रामलीला में मिलता है। लेखक चंद्रशेखर तिवारी के मुताबिक कुमाऊं की रामलीला विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे।
'कुमाऊं की रामलीला अध्ययन एवं स्वरांकन' पुस्तक में डॉ. पंकज उप्रेती लिखते हैं कि तमाम विविधता समेटे होने के बावजूद कुमाऊं में प्रचलित होने के कारण यहां की रामलीला को 'कुमाऊंनी रामलीला' संबोधित कर दिया जाता है। जबकि लोक का प्रकटीकरण नहीं होने के कारण इसे 'कुमाऊं की रामलीला' कहना उचित रहेगा।
 

ब्रजेंद्र साह ने तैयार की 'कुमाऊंनी रामलीला'
कुमाऊं अंचल में 'कुमाऊंनी रामलीला' का भी प्रचलन है। हालांकि स्वरांकन न हो पाने के कारण यह प्रचलन में कम है। लेखक डॉ. पंकज उप्रेती के मुताबिक 'कुमाऊंनी रामलीला' पूरी तरह लोक पर आधारित है। इसकी बोली-भाषा से लेकर संगीत पक्ष तक कुमाऊं से उठाया गया है। 1957 में रंगकर्मी स्व. ब्रजेंद्र लाल साह ने लोक धुनों के आधार पर रामलीला गीता-नाटिका की रचना की। स्व. डॉ. एसएस पांगती के प्रयासों से पिथौरागढ़ के दरकोट में 'कुमाऊंनी रामलीला' का मंचन शुरू हुआ, जो आज तक जारी है।

ऑडियो रूप में हो रही संग्रहित
लेखक स्व. शेर सिंह पांगती की प्रेरणा से रंगकर्मी देवेंद्र पांगती 'देवु' 'कुमाऊंनी रामलीला' को ऑडियो रूप में संकलित करते में जुटे हैं। दो साल की मेहनत के बाद 'देवु' ने लोक गायकों की आवाज में सात अध्यायों का संकलित कर लिया है। देवेंद्र पांगती कहते हैं एक बार ऑडियो रूप में संकलित होने के बाद कहीं भी 'कुमाऊंनी रामलीला' का मंचन आसान हो जाएगा।