Saturday, 14 April 2018

ग्रामीण जनजीवन बयां करती खाती गांव के घरों की दीवारें

-बागेश्वर के पिंडर घाटी के गांव की अद्भुत दास्तां
-देश-दुनिया का ध्यानाकर्षित करने की नायाब पहल

गणेश पांडे, हल्द्वानी : विश्व प्रसिद्ध पिंडारी ग्लेशियर के ट्रेकिंग रूट के किनारे स्थित खाती गांव के घरों की दीवारें इन दिनों खिल उठी हैं। घरों की दीवारें यहां के कल्चर और ग्रामीण जनजीवन का दर्शन करा रही हैं। यह सब प्रयास इसलिए हुआ है ताकि देश-दुनिया का ध्यान इस तरफ आकर्षित हो। हंस फाउंडेशन और प्रोजेक्ट फ्यूल के तहत देश-दुनिया से पहुंचे 40 पेंटर एक माह के दौरान गांव के 70 घरों की दीवारों पर विभिन्न आकृतियां उकेर चुके हैं। पेंटिंग के माध्यम से पर्वतीय महिलाओं के संघर्ष, ग्रामीण उत्सव, शादी-विवाह, ऐपण कला आदि को दर्शाया गया है।

ये है पेंटिंग का मकसद
हंस फाउंडेशन से जुड़े आईवीडीपी के प्रोग्राम मैनेजर दिनेश मेनारिया बताते हैं कि बागेश्वर जिला मुख्यालय से 75 किमी दूरी पर स्थित पिंडर घाटी के 11 गांव सड़क, बिजली, पानी जैसे जरूरी सुविधाओं से वंचित हैं। कई गांवों में संचार सुविधा भी नहीं है। खाती जिले का अंतिम गांव है। एकीकृत ग्राम विकास परियोजना (आईवीडीपी) के तहत हंस फाउंडेशन ने खाती, वाछम, सोराग, वडियाकोट, चिलपाड़ा, कुलाड़ी, वोराचक जारकोट, कालौ गांवों को तीन साल के लिए गोद लिया है। इन गांवों में 950 परिवार रहते हैं। सोशल मीडिया समेत अन्य माध्यमों के जरिए यहां के गांव देश-दुनिया के सामने आ सकें, इसलिए पेंटिंग का आइडिया आया। ग्रामीण मानते हैं इससे सरकार व जनप्रतिनिधि का ध्यान बुनियादी सुविधाएं की तरफ जाएगा।



प्रोजेक्ट फ्यूल टीम की मेहनत

26 वर्षीय दीपक रमोला के निर्देशन और हेड आर्टिस्ट पूर्णिमा सुकुमार के नेतृत्व में 40 आर्टिस्ट की टीम ने 70 घरों पर पेंटिंग की। दीपक ने पिछले साल जून में टिहरी जिले के सौड गांव में पलायन के कारण खाली हो गए 50 से अधिक घरों पर पेंटिंग की। इसके पीछे लोगों को अपनी जड़ों की तरफ लौटाने का प्रयास था। सोशल मीडिया समेत दूसरे मंच पर इस प्रयास को काफी सराहना मिली।



कौन हैं दीपक रमोला

देहरादून के रहने वाले दीपक मुंबई विवि से मास मीडिया स्टडीज में गोल्ड मेडलिस्ट होने के साथ लेखक, अभिनेता, गीतकार हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, कैसर थिएटर प्रोडक्श और नो लाइसेंस के साथ काम करने के बाद दीपक ने थियेटर में अनुभव हासिल किया। अभिनेता के रूप में दीपक ने राजश्री प्रोडक्शन के 'आइ लाइ लाइफ' में काम किया है। सलमान खान के साथ 'बॉडीगार्ड' और धारावाहिक 'ससुराल सिमर का' में भी काम किया है। ङ्क्षहदी फिल्म 'मांझी द माउंटेन मैन' और 'बजीर' के लिए गीत लिखे हैं।

हर पाठ पढ़ा देता है जिंदगी का सबक

दीपक  कहते हैं मेरी मां पुष्पा रमोला केवल पांचवीं तक पढ़ी थीं, लेकिन उनके पास ज्ञान का अथाह भंडार था। जब मैंने इस बारे में मां से पूछा तो उन्होंने कहा कि जिंदगी का सबक दुनिया का हर पाठ पढ़ा देता है। तभी से उनके दिमाग में आम लोगों के ज्ञान को सीखने, बचाने और उसे बांटने की प्रवृति पैदा हुई। इसी के तहत 2009 में 'प्रोजेक्ट फ्यूल' की शुरुआत की।

Monday, 9 April 2018

पिछौड़ा : हमारा गौरव ही नहीं, पहचान भी

पिछौड़ा..। एक ऐसा शब्द जो जहन में आता है तो ओढऩी सरीके एहसास कराता है और अगर आंखों के सामने आ आए तो कुमाऊंनी महिलाओं की पारंपरिक परिधानों की संपूर्णता का दीदार करा देता है। परंपरागत रूप से कुमाऊं अंचल की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा पिछौड़ा आज के बाजारवाद में भी हमारी संस्कृति में रचा-बसा है। समय के साथ पिछौड़े भले ही आकर्षक और डिजाइनदार हो गया हो, लेकिन गौरवांवित होने वाली बात यह है कि रंगवाली पिछौड़ा हमारी संस्कृति से अलग नहीं हुआ। कुमाऊं अंचल के साथ सुदूर शहरों और सात समंदर पार बस गए प्रवासी महिलाए भी विभिन्न शुभ अवसरों पर पिछौड़ा जरूर पहनती हैं।



पिछौड़ा का महत्व और प्रयोग

कुमाऊं में दुल्हन के लिए पिछौड़ा उतना ही महत्व रखता है, जितना पंजाबियों के लिए फुलकारी और हैदराबादी महिलाओं के लिए दुपट्टा। पिछौड़ा शादीशुदा महिला के सुहाग का प्रतीक है। रंगा होने के कारण इसे रंगवाली पिछौड़ा कहा जाता है। परंपरा के अनुसार उत्सव, सामाजिक समारोह व धार्मिक अवसरों पर पहना जाता है। विवाह में कन्या को दी जाने वाली ड्रेस में पिछौड़ा भी शामिल रहता है। विवाह, नामकरण संस्कार, त्योहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर महिलाएं पिछौड़ा पहनती (ओढ़ती) हैं। घर-परिवार में कोई मांगलिक कार्यक्रम हो तो पिछौड़ा पहने महिलाओं को देख सहज ही अंदाजा हो जाता है कि यह समारोह वाले परिवार से हैं।

संपूर्णता का है प्रतीक

संस्कृति कर्मी जुगल किशोर पेटशाली के अनुसार पिछौड़ा संपूर्णता का प्रतीक है। प्रतीकात्मक रूप में लाल रंग वैवाहिक जीवन की संयुक्तता, स्वास्थ्य तथा संपन्नता का प्रतीक है, जबकि सुनहरा पीला रंग भौतिक जगत से जुड़ाव दर्शाता है।


हाथों से बनाने की थी परंपरा

आज भले ही बाजार में आकर्षक डिजाइन और ऊंची कीमत वाले पिछौड़ा आसानी से उपलब्ध हैं। लेकिन करीब चार दशक पहले तक कॉटन वाइल या हल्के सूती फैब्रिक को रंगकर घर पर ही पिछौड़ा तैयार किया जाता था। करीब तीन मीटर लंबे व सवा मीटर चौड़े सफेद कपड़ा लेकर उसे गहरे पीले रंग में रंगा जाता था। तब सिंथेटिक रंगों का प्रचलन नहीं था। हल्दी या किलमोड़ा (कांटे युक्त जंगली झाड़ी) की जड़ को कूटकर पीला रंग तैयार कर कपड़े को रंगा जाता। हल्दी को कूटकर उसमें नीबू व सुहागा मिलाकर लाल रंग तैयार होता। कपड़े के बीच में स्वास्तिक और चारों कोनों पर सूर्य, चंद्रमा, शंख, घंटी आदि बनाए जाते। सिक्के पर कपड़ा लपेट कर कपड़े पर लाल-लाल गोले बनते है। अब परंपरा निभाने को मंदिर के लिए कपड़े के टुकड़े पर शगुन कर लिया जाता है। 

फोटो सोर्स : स्टोरी में शामिल सभी फोटो गूगल सर्च से उठाई गई हैं।