Thursday, 15 June 2017

कविता : शहर की तन्हाई

शहर में जब मैं खुद को अकेला पाता
निकल पड़ता गौला के पार
सुदूर पहाड़ी की तरफ
हैड़ाखान रोड तो कभी दोगांव

पहाड़, हरेभरे पेड़, जंगल
गांव जैसी अनुभूति देते
लगता जैसे निकल आया हूं
गांव की धार चढ़कर किसी पहाड़ी पर

जंगल के बीच कहीं खो जाता
गांव के जैसा अनुभव पाता
आसपास नजर दौड़ाकर
पेड़, पत्थर, रास्तों को जीभर निहारता

महिला को घास की घुडली लाता देख
मां और गांव की काकी याद आती
सोचता, कहूं काकी आ गईं घास लेकर
तभी ध्यान टूटता ये तेरा गांव नहीं 'गणेश'
(स्वरचित)